लुटी द्रौपदी की लाज वे देखते रहे।
झुका शीश का भी ताज वे देखते रहे।।
मज़हबी आग में ख़ाक इंसां हुआ,
कोई आया न बाज वे देखते रहे।
राष्ट्र छोटा पड़ा धर्म के सामने
गिरी आदमी पे गाज वे देखते रहे।
अपने घरों में बड़े वे बनते रहे,
टूट गया हर समाज वे देखते रहे।
आदमी आदमी को ज़हर हो गया,
मेंट हथेली की खाज वे देखते रहे।
कहते थे वे देवी हर माँ बहन को,
लुटा सिंदूर -साज वे देखते रहे।
शान कोरी दिखा मूँछ वे तानते,
सेंकते हुए 'शुभम' आँख वे देखते रहे।।
💐शुभमस्तु!
✍रचयिता "©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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