शनिवार, 13 जुलाई 2019

ग़ज़ल

लुटी द्रौपदी की लाज वे देखते रहे।
झुका शीश का भी ताज वे देखते रहे।।


मज़हबी आग में ख़ाक इंसां हुआ,
कोई आया न बाज वे देखते रहे।

राष्ट्र छोटा पड़ा धर्म के सामने
गिरी आदमी पे गाज वे देखते रहे।

अपने घरों में बड़े वे बनते रहे,
टूट गया हर समाज वे देखते रहे।

आदमी आदमी को ज़हर हो गया,
मेंट हथेली की खाज वे देखते रहे।

कहते थे वे देवी हर माँ बहन को,
लुटा सिंदूर -साज वे देखते रहे।

शान कोरी दिखा मूँछ वे तानते,
सेंकते हुए 'शुभम' आँख वे देखते रहे।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता "©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...