बातें करना और बातें बनाना ,ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। बातें तो हम करते ही हैं। मुँह है, उसमें भी जीभ है, जो बातों की नींव है:इसलिए बातें करते हैं। बातें तो हम पहले भी करते ही थे।लेकिन बातें करने का यह व्यापक सिलसिला तब से और ज़्यादा बढ़ गया , जब से हमारे मुँह में मूबाइल चिपक गया। अब तो हम अपना मूँ बा - बा कर (अर्थात खोलकर) इल (बीमारी) ही पाल बैठे हैं ,कि चीनी की बीमारी की तरह हमारा पीछा ही नहीं छोड़ती। इसीलिए इसका नाम पड़ गया -मू +बा+इल =मूबाइल या मोबाइल अर्थात मू को बाने (खोलने /फाड़ने) की इल (बीमारी)। इस मूबाइल से बातों का अनन्त सिलसिला जागने से सोने तक (सोना भी मज़बूरी है , अन्यथा बातें ही करते रहें।) अनवरत चलता रहता है। ज़रूरी बातें बाद में होती हैं, गैर ज़रूरी पहले शुरू हो जाती हैं। उदाहरण के लिए चौके -चूल्हे की बातें, सास बहू की निंदा रस की घातें, खेत-खलिहान की बातें, ऑफिस के बॉस की डाँटें, आदि आदि। ज़रूरी बातों की क्या है ! कभी भी कर लेंगे। कर ही लेंगे। फोन तो अपना है, कोई किराए पर थोड़े लिया है।खैर -खुशी के नाम पर 20 -25-30 मिनट चोंचें लड़ाना अनिवार्य हो गया है।
ये तो हुई बात करने की बात। एक और ज़रूरी बात ये है कि बातें करना तो करना, हम बातें बनाने के माहिर उस्ताद/ उस्तादिन भी हैं। बातें कोई कितनी ही बनवा लो, हम बिना रुके, बिना टिके, बिना झुके : बनाते ही चले जायेंगे। बनाते चले जाएंगे। बातों के विषय इतने आदर्श औऱ सिद्धान्तों से लबालब कि अच्छे -अच्छे उपदेशक , कथावाचक, वक्ता, प्रवक्ता ,आचार्य , उपाचार्य भी मुँह की ओर न ताकने लग जाएं, तो कहना। जैसे - पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ। अनावश्यक जल - दोहन मत करो, सड़क-यातायात के
नियमों का पालन करो, हेलमेट लगाओ, सीट बेल्ट बांधो, घर का कचरा कूड़ेदान में डालो, अपनी रिटर्न समय से भरो, किसी की बुराई मत करो, स्टेशन तथा सार्वजनिक स्थान पार्क, बस स्टैंड, हवाई अड्डा, बैंक, डाकघर आदि में गंदगी, प्लास्टिक बोतल, खाद्य - अखाद्य के रैपर मत फेंको। नाले और नालियों को साफ़ रखो।कीट नाशकों का प्रयोग न करके मानवता की रक्षा करो , गाय भैंसों को दूध दुहने के लिए ऑक्सिटोसिन के इंजेक्सन मत लगाओ। ऐसे ही हजारों विषय हैं , जिन पर लाखों - करोड़ों बातें नित्य नियमित रूप से बनाई जाती हैं।
अब जलता हुआ प्रश्न ये है कि जब कुछ बनाया जाता है तो वह बनकर कहाँ जाता है? उसका होता क्या है? जब बातें बनाई गईं तो उनका कुछ होना चाहिए न? लेकिन बातें बनाने वाले केवल कुम्हार का काम करते हैं। बात भी कुछ -कुछ ठीक ही है।बनाने वाले ने बना दिया। अब उनका सदुपयोग तो कोई और ही करेगा न? जैसे कुम्भकार घड़ा बनाता है और उसका ठंडा-ठंडा पानी तो और ही लोग पीते हैं न ? कितनी भी बातें बनवा लो, कोई शुल्क नहीं, कोई मूल्य नहीं, कोई खरीदार भी नहीं। वजह ? ये है कि बातों के कुम्भकार तो यहाँ हर घर में हैं। कौन किसी की बनी हुई बात को तवज्जोह दे ? बस बनाना ही तो आता है। बनाकर उसका प्रयोग या महत्व हम जानते ही नहीं। ऐसी -ऐसी महत्वपूर्ण बातें बनाई जाती हैं कि अच्छे अच्छे संविधानविद भी चक्कर खा जाएँ। क़ानूनवेता कानून भूल जाएं और प्रजापति ब्रह्मा भी सोचने को विवश हो जाएं कि वाह रे इंसान! मैंने तुझे बनाया औऱ तूने ऐसी -ऐसी बातें बना दीं कि मैं भी नहीं बना पाया। मैं तो केवल मिट्टी के पुतलों में जान डालता रहा, पर इस पुतले ने तो बातें बना बनाकर
मुझे भी पीछे छोड़ दिया।
बातें बनाना या बातें गढ़ना :हिंदी साहित्य के दो मुहावरे कहे जाते हैं। इसका मतलब साफ़ है कि बात करने से बात बनाना कुछ अलग ही बात है। इसीलिए तो इस बेबात की बात का बतंगड़ बनाने की सूझ गई। बात बनाना या गढ़ना : एक सृजनात्मक कार्य है। यह स्वावभाविक सृजन की कला मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार है। जैसे मुँह दिया, वैसे ही उसके अंदर से निकले समंदर : बतंगड़ का स्रोत भी कुदरती तौर पर वहीं दे दिया। जो दिल की तरह बिना थके, बिना रुके, बिना टिके रात -दिन, चौबीसों घण्टे, सप्ताह भर , पूरे माह 365 दिन चलता ही रहता है । काश ! इस बतंगड़ के समंदर से वह नमक ही निकाल ले, जो दाल में नमक बराबर ही सही, कुछ काम ही आये। पर नहीं, आदमी बस बातें बनाना ही जान पाया है। उन्हें अपने ऊपर घटाना, या लगाने का हुनर अभिमन्यु के जन्म की तरह प्रजापति ब्रह्मा जी उसे नहीं सिखा पाए , तब तक वह दुनिया में कूद पड़ा। सुभद्रा को नींद न आती तो अर्जुन गर्भ में ही उसे चक्रव्यूह भेदन - विधि सिखा ही देते। इसी प्रकार अधूरा ज्ञान लेकर पैदा हुआ , मानव भी केवल बातें बनाना ही जान पाया। जताना ही जान पाया, करना कराना नहीं।
बात बात में बात है,
बात बात में बात।
बात बनाता यों मनुज,
ज्यों केले के पात।।
💐शुभमस्तु!
✍लेखक ©
🦆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
ये तो हुई बात करने की बात। एक और ज़रूरी बात ये है कि बातें करना तो करना, हम बातें बनाने के माहिर उस्ताद/ उस्तादिन भी हैं। बातें कोई कितनी ही बनवा लो, हम बिना रुके, बिना टिके, बिना झुके : बनाते ही चले जायेंगे। बनाते चले जाएंगे। बातों के विषय इतने आदर्श औऱ सिद्धान्तों से लबालब कि अच्छे -अच्छे उपदेशक , कथावाचक, वक्ता, प्रवक्ता ,आचार्य , उपाचार्य भी मुँह की ओर न ताकने लग जाएं, तो कहना। जैसे - पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ। अनावश्यक जल - दोहन मत करो, सड़क-यातायात के
नियमों का पालन करो, हेलमेट लगाओ, सीट बेल्ट बांधो, घर का कचरा कूड़ेदान में डालो, अपनी रिटर्न समय से भरो, किसी की बुराई मत करो, स्टेशन तथा सार्वजनिक स्थान पार्क, बस स्टैंड, हवाई अड्डा, बैंक, डाकघर आदि में गंदगी, प्लास्टिक बोतल, खाद्य - अखाद्य के रैपर मत फेंको। नाले और नालियों को साफ़ रखो।कीट नाशकों का प्रयोग न करके मानवता की रक्षा करो , गाय भैंसों को दूध दुहने के लिए ऑक्सिटोसिन के इंजेक्सन मत लगाओ। ऐसे ही हजारों विषय हैं , जिन पर लाखों - करोड़ों बातें नित्य नियमित रूप से बनाई जाती हैं।
अब जलता हुआ प्रश्न ये है कि जब कुछ बनाया जाता है तो वह बनकर कहाँ जाता है? उसका होता क्या है? जब बातें बनाई गईं तो उनका कुछ होना चाहिए न? लेकिन बातें बनाने वाले केवल कुम्हार का काम करते हैं। बात भी कुछ -कुछ ठीक ही है।बनाने वाले ने बना दिया। अब उनका सदुपयोग तो कोई और ही करेगा न? जैसे कुम्भकार घड़ा बनाता है और उसका ठंडा-ठंडा पानी तो और ही लोग पीते हैं न ? कितनी भी बातें बनवा लो, कोई शुल्क नहीं, कोई मूल्य नहीं, कोई खरीदार भी नहीं। वजह ? ये है कि बातों के कुम्भकार तो यहाँ हर घर में हैं। कौन किसी की बनी हुई बात को तवज्जोह दे ? बस बनाना ही तो आता है। बनाकर उसका प्रयोग या महत्व हम जानते ही नहीं। ऐसी -ऐसी महत्वपूर्ण बातें बनाई जाती हैं कि अच्छे अच्छे संविधानविद भी चक्कर खा जाएँ। क़ानूनवेता कानून भूल जाएं और प्रजापति ब्रह्मा भी सोचने को विवश हो जाएं कि वाह रे इंसान! मैंने तुझे बनाया औऱ तूने ऐसी -ऐसी बातें बना दीं कि मैं भी नहीं बना पाया। मैं तो केवल मिट्टी के पुतलों में जान डालता रहा, पर इस पुतले ने तो बातें बना बनाकर
मुझे भी पीछे छोड़ दिया।
बातें बनाना या बातें गढ़ना :हिंदी साहित्य के दो मुहावरे कहे जाते हैं। इसका मतलब साफ़ है कि बात करने से बात बनाना कुछ अलग ही बात है। इसीलिए तो इस बेबात की बात का बतंगड़ बनाने की सूझ गई। बात बनाना या गढ़ना : एक सृजनात्मक कार्य है। यह स्वावभाविक सृजन की कला मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार है। जैसे मुँह दिया, वैसे ही उसके अंदर से निकले समंदर : बतंगड़ का स्रोत भी कुदरती तौर पर वहीं दे दिया। जो दिल की तरह बिना थके, बिना रुके, बिना टिके रात -दिन, चौबीसों घण्टे, सप्ताह भर , पूरे माह 365 दिन चलता ही रहता है । काश ! इस बतंगड़ के समंदर से वह नमक ही निकाल ले, जो दाल में नमक बराबर ही सही, कुछ काम ही आये। पर नहीं, आदमी बस बातें बनाना ही जान पाया है। उन्हें अपने ऊपर घटाना, या लगाने का हुनर अभिमन्यु के जन्म की तरह प्रजापति ब्रह्मा जी उसे नहीं सिखा पाए , तब तक वह दुनिया में कूद पड़ा। सुभद्रा को नींद न आती तो अर्जुन गर्भ में ही उसे चक्रव्यूह भेदन - विधि सिखा ही देते। इसी प्रकार अधूरा ज्ञान लेकर पैदा हुआ , मानव भी केवल बातें बनाना ही जान पाया। जताना ही जान पाया, करना कराना नहीं।
बात बात में बात है,
बात बात में बात।
बात बनाता यों मनुज,
ज्यों केले के पात।।
💐शुभमस्तु!
✍लेखक ©
🦆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें