शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

प्रेम [दोहा, चौपाई ]

प्रेम   सहित   वंदन  करूँ,
प्रेम -  देव    का     आज।
जीव -जगत  में   प्रेम  ही,
जीवन    का     सरताज।।

हम   तुम    बनते  प्रेम  से,
होता       सृष्टि  -  विधान।
ज्यों  पय में घृत  बस रहा,
उर    में   प्रभु  -  संधान।।

वेद ऋचा  सम पावनताई।
प्रेमगीत  बन ऋषिवर गाई।।

परस पुष्पवत महक सुहाई।
चुभन शूल की प्रेम समाई।।

आग  जले विरहिन के उर में।
 स्वांत बूँद सा उर-अम्बर में।।

आपस   का   विश्वास प्रेम है।
जिसका अपना सहज नेम है।

गंगा   की  पावन  जलधारा।
प्रेम सरित का युगल किनारा।

प्रेम विरहगत   रिमझिम सावन।
विरहिन के आँसू -सा पावन।

धूप रूप की खिल  पाती है।
बूँद प्रेम जब मिल जाती है।।

यहाँ   वहाँ  हर  ओर  प्रेम है।
जहाँ  प्रेम सब कुशलक्षेम है।।

गीतों    के    हर    बंध    में,
पावन        प्रेम      प्रकाश।
जहाँ     अँधेरा    जगत   में ,
वांछित      प्रेम  -  उजास।।

बिना    प्रेम    रूठे    तिया,
उसे  पिया     की      आश।
बिना  प्रेम       कुल   टूटते,
दिखे     नाश   ही   नाश।।

ईश्वर   से     सदभक्ति का,
नाम     प्रेम      सद्भभाव।
नाम  जपें      वंदन    करें,
सिमटें    सकल   अभाव।।

फूल  प्रेम  के   जब  खिलें,
नए    सृजन   का      हेत।
जब  पराग  के   राग  कण,
मिलें  फले    हर     खेत।।

दादुर करते निशिभर टर- टर।
प्रेमाधीन  बुलाते       दादुर।।

प्रेमऋतु     पावस    पुरवाई।
विरहिन के उर  आस जगाई।

खग पशु   प्रेम  बँधे नरनारी।
बिना    प्रेमजल  सूखे बारी।।

सरिता कलकल निशिदिन बहती।
सिंधु पिया से मिलकर रहती।

यद्यपि   है  सागर जल खारी।
प्रेम -विवश  सरिता  बेचारी।।

दीप ज्वाल पर बलि परवाना।
प्रेम तत्त्व बस  उसने  जाना।।

अम्बर को धरती अतिप्यारी।
बादल बरसा   गई  खुमारी।।

फ़ूल फ़ूल  को  चूम रहा है।
प्रेम विवश ही झूम रहा है।

वे  सब    सन्यासी      हुए,
त्याग  लोक   के       प्रेम।
ईश्वर से   जब   लौ   लगी,
बदले      केवल      नेम।।

प्रेम  बिना  सब  शून्य है,
प्रेम   रहित   सब   पाप।
'शुभम'प्रेमरत   जो   रहे,
मिलते    उसको  आप।।

💐 शुभमस्तु! 
✍रचयिता ©
📕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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