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✍️ व्यंग्यकार ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कबीर - काव्य -परम्परा में कविता अपने क्रांतिकारी स्वरूप में समाज का हित कर सकी अथवा नहीं, यह तो उस युग का कोई जीवित मनुष्य ही बता सकता है। किंतु ऐसी संभावना शून्य ही है, क्योंकि इतना पहले का कोई भी मानव जीवित रह पाना असंभव ही है।इसलिए उसकी खोज ही व्यर्थ है। बावन से भी अधिक दशाब्दियाँ बीत-रीत जाने के बाद भी उनकी गूँज आज भी हमें सचेत करती हुई कानों में गूँजती है।कबीरदास जी लालटेन लेकर बुरा आदमी ढूँढ़ने के लिए चले(बुरा जो देखन मैं चला) तो उन्हें कोई भी बुरा आदमी ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला,(बुरा न मिलिया कोय)।किन्तु जब अपनी अंतरात्मा में उसे खोजा(जो दिल खोजा आपना) तो उन्होंने पाया कि सबसे बुरे तो वे स्वयं हैं।(मुझसे बुरा न कोय)। \
कबीरदास जी की इसी सामाजिक क्रांति की परंपरा में मैं भला आदमी ढूँढ़ने निकला हूँ।हमारे महापुरुषों ने सही व्यक्ति होने के अनेक मानक निर्धारित किए हैं। महाभारत , वेद ,पुराण, रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में भी बहुत कुछ कहा लिखा गया है, किन्तु अभी तक कोई ऐसा साँचा बनकर नहीं आया ,जिसमें ढालकर एक आदर्श पुरुष या स्त्री का निर्माण कर दिया जाए।कई चोरों से जब मैं मिला तो उन्होंने भी अपने चोरी करने का पवित्र उद्देश्य बता दिया। डकैतों ने भी डकैती डालने के अपने शुद्ध मकसद प्रस्तुत कर दिये।ग़बन- कर्ता अपने ग़बन करने के औचित्य पर डटे रहे। व्यभिचारी ,बेईमान, कम तोलने- नापने वाले, पेट्रोल पम्प में चिप लगाकर ईमानदार बने रहने वाले पूँजी पति,अपहरणकर्ता, बलात्कारी, राहजन, जेबकट, जार,लुटेरे,नेता ,रिश्वतखोर, मिलावटखोर,हत्यारे ,कैदी, सबने अपने को दूध का धुला हुआ बताया। उन सबके प्रवचन सुनकर मैं कुछ निर्णय नहीं कर पाया। ऐसा लगा कि इनमें से किसी को अपना गुरु ही बना लिया जाए। पर अन्ततः किसे ये सौभाग्य प्रदान किया जाए। मुझे वे बेचारे सभी लगे किस्मत के मारे।साँप,बिच्छू, गधे, घोड़े, हाथी, शेर, लोमड़ी, गीदड़, हिरन ,खरगोश आदि सबके स्वभाव और प्रकृतियाँ भिन्न -भिन्न हैं।'जो आया जेहि काज सों, तासे और न होय।' के अनुसार सब अपनी - अपनी जगह ठीक हैं। भले हैं।
कबीरदास जी की तरह जब मैं अपने शोध में निष्फल हो गया ,तो सोचा कि मुझसे बड़ी भूल हो गई है, एक जगह तो अभी खोजा ही नहीं गया। बात वही कि,' बगल में छोरा ,नगर में ढिंढोरा।' अर्थात ....... वह कौन सी जगह शेष रह गई ,जहाँ खोजा ही नहीं गया।वह जगह थी मेरी अपनी ही अंतरात्मा। वहाँ जब देखा तो उजाला हो गया। काला स्याह रँग भी दूध वाला हो गया। तब मेरा ध्यान गया वहाँ, पहुँचा ही नहीं था अब तक जहाँ। सच में मैंने एक सच जान लिया।अपनी ही आत्मा को मैंने अपना गुरु मान लिया।मैंने जो पाया है वह आपको भी जताता हूँ।टूटे -फूटे शब्दों में कहकर बताता हूँ।
भला या सही व्यक्ति बनने का मानक क्या है? सही या भला होना सदा सापेक्षिक होता है।जिससे मेरा काम सिद्ध ही जाता है, वह मेरे लिए सर्वोत्तम हो जाता है। और यदि वह मेरा काम नहीं करता है अथवा कर पाता है ,तो वही व्यक्ति मेरे लिए बहुत बुरा हो जाता है।किसी और व्यक्ति के लिए वही उसका उल्लू सीधा नहीं करने के कारण बहुत बुरा हो जाता है। इससे यही धारणा बनाने की बाध्यता आती है कि संसार का कोई भी व्यक्ति सर्वांश में सही नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज तक इसका निर्धारित मानक भी नहीं बन पाया। किसी के 99 काम कर दीजिए , एक मत करिए ,तो उसके लिए आप सबसे बुरे व्यक्ति होंगे। जिसके 99 काम मत कीजिए ,एक काम बहुत अच्छा कर दीजिए ,तो आपके समान कोई अच्छा भी नहीं होगा उसके लिए।मुझे तो लगता है कि अच्छे और बुरे का यही मानक समाज को सर्व स्वीकार्य है।
इसलिए संसार में न कुछ सही है, नहीं कुछ ग़लत है।सब कुछ समय, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करता है।समय ,व्यक्ति और परिस्थिति की सापेक्षता ही श्रेष्ठ है । वही मानक है। यहाँ सबके मानक अलग -अलग हैं।आज भगवान श्रीराम भी मानव मात्र के आदर्श नहीं हैं।सापेक्षिकता का सर्व स्वीकार्य सिद्धांत है , जो देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है।इसीलिए कहीं झूठ भी पुण्य है ,तो कहीं सत्य भी पाप है। न भला मैं हूँ औऱ न बुरे आप हैं। एक ही महामंत्र सर्वत्र फलीभूत है : वह महामंत्र है "स्वार्थ"।एक मात्र मानक है :"स्वार्थ"।
🪴 शुभमस्तु !
२८.०८.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।
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