शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

वे किसान को क्या समझेंगे! 🏕️ [ गीत ]


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✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देखे    नहीं    बालियाँ,   पौधे,

गेहूँ,     धान,     कपास    के।

वे  किसान को क्या  समझेंगे,

दिन  जिनके    संत्रास    के।।


टपके स्वेद गरम जिस तन से,

वही    मोल    उसका   जाने।

रात  और दिन  एक  किए हैं,

कृषक, कृषक को  पहचाने।।

ए.सी.   में   बैठे   शहरी  को,

हलधर   पात्र     सुहास    के।

वे किसान को क्या  समझेंगे,

दिन   जिनके    संत्रास   के।।


सदा     अभावों  में   ही   जीता,

भोजन ,   कपड़ा     सादा    है।

पैर   नहीं   ढँकते   चादर   में,

फिर  भी   नेक    इरादा   है।।

फ़सल कृषक की बेचे बनिया

दिन    आए     परिहास   के।

वे किसान को  क्या समझेंगे,

दिन   जिनके     संत्रास  के।।


धोती   फ़टी   पहनती  घरनी,

बालक    नंग -  धड़ंग   फिरें।

देह   झाँकतीं   है    कुरते   में,

फ़टे    उपानह   पहन   गिरें।।

पिचके  गाल  काँपती  काया,

ये   हैं   चिह्न  विकास    के ?

वे  किसान को क्या  समझेंगे,

दिन   जिनके    संत्रास   के।।


टूटी   खाट   फटी   कथरी है,

रूखी -  सूखी      है     रोटी।

ऋण के  बोझ  दबा  जाता है,

हलधर की   किस्मत  खोटी।।

मंडी   में   अच्छा   नित  बेचे,

स्वयं   रखे   फल   बास   के।

वे किसान  को  क्या समझेंगे,

दिन   जिनके    संत्रास   के।।


टूटी  छानी    टपक   रही   है,

जगते -  जगते      रात    गई।

इधर - उधर  सरकाई खटिया,

बरसे    मेघ     प्रभात    नई।।

गोबर लिपे   सजल आँगन में,

पौधे    विकसित       ह्रास      के।

वे किसान को क्या  समझेंगे,

दिन    जिनके    संत्रास  के।।


शुल्क  औऱ  गणवेश   नहीं हैं,

कैसे   बालक     पढ़     जाएँ!

मोटा  शुल्क टिफ़िन बस्ते की,

कीमत    नहीं    जुटा   पाएँ।।

 नित  कपटी    व्यापारी  लूटें,

सब्जी,    रोटी    घास     के।

वे किसान को क्या समझेंगे,

दिन   जिनके   संत्रास   के।।


सबको देता   अन्न, दूध ,फ़ल,

सब्जी ,वसन    किसानी  से।

उस किसान की पत्नी वंचित,

मन की   साड़ी    धानी  से।।

भूमिपुत्र  कहकर सब  ठगते,

'शुभम'   नहीं    आवास   ये।

वे किसान को क्या समझेंगे,

दिन   जिनके   संत्रास   के।।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०८.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

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