मंगलवार, 10 अगस्त 2021

परम्परा 🌾🌾 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक © 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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            मानव एक सामाजिक प्राणी है।मानवेतर अन्य प्राणियों से भिन्न संस्कृति औऱ सभ्यता उसके जीवन के अभिन्न अंग हैं। अपनी पावन संस्कृति औऱ सभ्यता की अनवरत बहती हुई सरिता में निमज्जन करती हुई मानव जाति आगामी पथ पर अग्रसर होती रहती है। उसकी सभ्यता और संस्कृति उसे पशु, पक्षियों,कीट, पतंगों आदि से भिन्न रूप में मानव बनाती है। 

            सभ्यता मानव मात्र को जीने का एक ऐसा बाहरी आवरण है ,जो उसके भोजन ,पानी, आवास आदि की व्यवस्था करता है।जबकि संस्कृति से उसके जीवन के आंतरिक रंग भरे जाते हैं। सभ्यता निरंतर समय - समय पर परिवर्तित होती रहती है, जबकि संस्कृति युग -युग से चली आ ऐसी प्रवृत्ति है जिसमे परिवर्तन नहीं होते।हमारी सभ्यता औऱ संस्कृति के समन्वय से हमारी विविध परम्पराओं का विकास होता है। हमारे तीज ,त्यौहार,विवाह, शादी, गौना, सोलह संस्कार आदि हमारी प्राचीन पावन संस्कृति के सहस्रों निदर्शन हैं।

                  परम्पराएं अतीत से चली आ रही वे मानवीय विशेष प्रवृतियां हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सरिता की तरह प्रवहमान होती रहती हैं।भौगोलिक वातावरण, स्थान, वर्ण ,धर्म आदि वे विविध कारक हैं, जिनसे परम्पराओं में वैविध्य आता है।बिना सोचे समझे जब हम उन पर चलते रहते हैं, तो यह समाज विशेष के पिछड़ेपन को द्योतित करता है।परंपराओं का यही रूप रूढ़ियाँ बन कर उसके विकास का गतिरोधक बन जाता है।

          प्रत्येक समाज के मुख्यतः दो रूप होते हैं । एक सामान्य वर्ग और दूसरा प्रबुद्ध वर्ग। सामान्य वर्ग इस तथ्य पर विचार किए बिना अंधानुकरण करता रहता है, कि इस प्रथा को अपनाने से उसे कोई लाभ है अथवा हानि हो रही है।बस बिना विचारे चलते रहना है। इसमें वह अपने पूर्वजों का सम्मान निहित मानता है।जब प्रबुद्ध वर्ग की चेतना इस ओर विचार करते हुए उसमें परिवर्तन लाती है ,अथवा उसका रूप बदलती है ,अथवा उसे छोड़ देती है ,तब वहाँ क्रांतिकारी बदलाव आता है। यहीं से परंपरा की धारा ,जो अंधी रूढ़ि बन चुकी है; समाप्त हो जाती है अथवा परिष्कृत कर दी जाती है। 

                  कोई कार्य इसलिए करते रहना कि हमारे बाबा,दादा, परदादा, या उससे भी पहले के पूर्वज करते थे , करते रहना समाज के पिछड़ेपन को प्रदर्शित करता है। युग परिवर्तन के साथ ही हमारी मान्यताएं बदलती हैं, विचार बदलते हैं, कार्य प्रणाली बदलती है, तब बंदरिया के मृत बच्चे की तरह उसे सीने से लगाए फिरना उचित नहीं है। इससे हमारे सामाजिक , आर्थिक ,पारिवारिक और वैयक्तिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।जो पिछड़ेपन की निशानी है। आज भी वे समाज पिछड़े हुए हैं , जो लकीर के फकीर बने अंधी परम्पराओं को गले से चिपकाए हुए हैं।

               अपने समाज ,परिवार औऱ निजी विकास के लिए स्वच्छ परम्पराओं की आवश्यकता है।युग परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए हमें बदल जाने की महती आवश्यकता है। ये परम्परा सम्बन्धी बदलाव इतनी सहजता से भी नहीं आ सकते। इन्हें जबरन थोपा भी नहीं जा सकता। मन और मष्तिष्क की धूल झाड़कर ही कुछ बदलाव किया जा सकता है। एक प्रबुद्ध व्यक्ति औऱ समाज को यह करना भी चाहिए।अन्यथा वह भी।गोबर का गुबरैला बना उतने ही दायरे में घूमता हुआ जीवन समाप्त कर लेता है। युग की बदलती हुई हवा के अनुरूप बदलाव लाना ही बुद्घिमत्ता है। उसका कूप मंडूकता से बाहर की शुद्ध हवा में श्वास लेना है। 

        आइए हम अपनी अंधी रूढ़ियों( सड़ी हुई परम्पराओं) का परित्याग करें और विश्व- पटल पर खड़े होकर देखें कि दुनिया कहाँ से कहाँ जा चुकी है।सभ्यता औऱ संस्कृति का सवेरा हो गया है। हम सब अपने को पहचानें औऱ अपनी सद्बुद्धि के आलोक में नई हवा में श्वास लें।देश औऱ समाज के कल्याण के लिए अपना सक्रिय योगदान करें। देश के सच्चे नागरिक और देशभक्त बनकर इतिहास के पृष्ठों में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कराएँ। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १०.०८.२०२१◆ ५.००पतनम मार्तण्डस्य

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