◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🎸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
मेरी साँसों में रस बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
सरगम बनें हमारी साँसें,
ऐसा नव संगीत बजाओ।।
तन का तार-तार झनझन कर,
मन में स्पंदन - सा करता है।
विद्युत -सी उमड़ी ही-तल में,
पर तुमको छूते डरता है।।
देह - धरा के रोम - रोम को,
अपने शुभ हाथों सहलाओ।
मेरी साँसों में रस बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
एक तरन्नुम हम दोनों का ,
बन जाए यह चाह हमारी।
स्वर-लहरी गूँजे निज गृह में,
पावन हो तन मन की क्यारी।
सुप्त धरा में हरे - भरे शुभ,
प्रियतम अंकुर नवल उगाओ।
मेरी साँसों में रस - बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
टँगी हुई खूँटी पर कोई ,
उस वीणा के अर्थ नहीं हैं।
तारों को छूने वाला ही,
सुप्त पड़ा हो व्यर्थ नहीं है??
हटा आवरण निज वीणा का,
मेरे साजन साज सजाओ।
मेरी साँसों में रस बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
टूटा नहीं तार वीणा का,
ये भी तो प्रिय जाँचो परखो।
परसो निज कर की अँगुली से
दृष्टि डाल नयनों की निरखो।
आलिंगन में उसे सजा कर,
चुम्बन से अपने सरसाओ।
मेरी साँसों में रस - बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
निशि का तम नित मुझे डराता,
मेरा कोई नहीं सहारा।
गरज रहे सावन के बादल,
काँप रहा है हृदय हमारा।।
'शुभम'संयमित करके धड़कन,
निज उर गृह संगीत गुँजाओ।
मेरी साँसों में रस - बस कर,
साजन अपनी प्रीति जगाओ।
🪴 शुभमस्तु !
०५.०८.२०२१◆६.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें