309/2022
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
नीर को भर लाए जलवाह।
खेत को हैं धाए हलवाह।।
नहीं है शेष तपन का नाम,
गगन में बगुले छाए वाह।।
मगन हो नाच रहे खग - वृंद,
कीट जी भर-भर खाए चाह।।
खेत, वन, बाग, बरसते मेघ,
नदी की कलकल भाए लाह।
छिपा झुरमुट में कोकिल एक,
कुहू की ध्वनि में गाये गाह।।
नहीं ढम- ढम बाजों का शोर,
हो रहे नहीं न आए ब्याह।।
'शुभम्' ऋतुरानी वर्षा नेक,
मिटाती ताप बिछाए दाह।।
लाह=चमक।
गाह=गाथा।
🪴शुभमस्तु!
०१.०८.२०२२◆०७.४५आरोहणम् मार्तण्डस्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें