319/2022
[अधर,अलता,अलकें ,ओष्ठ, अलि ]
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✍️ शब्दकार ©
💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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🪸 सब में एक 🪸
युगल अधर ज्यों ही जुड़े,शब्द हो गए मौन।
अधर नहीं वे रह सके,भूल परस्पर कौन।।
अधर -सुधारस पान कर,द्रवित हुईं दो देह।
अंतर में बहता रहा, कलित काम का मेह।।
अलता- रंजित पाँव की,शोभा की अनुहारि।
देख मौन वाणी हुई, पथ गजगामिनि नारि।।
प्राकृतिक अलता रचा, भौंचक मेरे नैन।
अपने पाँव निहारती, नहीं एक क्षण चैन।।
सोहें विधुवदनी सुघर, अलकें अलस अनेक
इठलाती बल खा रही, कामिनि ब्रज की एक
अलकें पलकों पर नचें,चले पवन पुरजोर।
सलज चाल बाला चले,धड़के उर चितचोर।।
परस ओष्ठ का ओष्ठ से, होते ही संचार।
विद्युत रेखा- सा हुआ, जुड़े हृदय के तार।।
ओष्ठ - तड़ित संवेदना, पाकर तेरी धन्य।
जीवन मेरा आज है, पहले से कुछ अन्य।।
तेरे हृदय - सरोज पर,दो अलि बैठे मौन।
तू स्वामिनि उनकी प्रिये,हटा सके अब कौन।
अलि-गुंजन जब से हुआ, रहती मैं बेचैन।
उठती उर में टीस-सी,विकल रहूँ दिन रैन।।
🪸 एक में सब 🪸
अलकें अलि - सी अधर में,
उड़तीं करतीं खेल।
अलता - से दो ओष्ठ ये,
करते सरस सु - मेल।।
🪴शुभमस्तु !
०९.०८.२०२२◆१०.४५
पतनम मार्तण्डस्य।
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