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✍️ शब्दकार ©
🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '
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नाले ऊँघ रहे सालों से
नगरपालिका सोई।
पंकासन में शूकर लेटे,
करते खेल निराले,
चेयर ले वे अंदर बैठे,
लगा जुबां पर ताले,
लेश नहीं सुनवाई,
जनता जी चिल्लाई,
दुर्गंधें ही बोई।
नाक नलों की टपक रही है,
सुर -सुर तेज जुकामी,
कोई नहीं देखने वाला,
करते काम इनामी,
शॉल माल हैं प्यारे,
जनता एक किनारे,
कुकर बनी बटलोई।
फिर चुनाव आने वाले हैं,
हथिया लें फिर कुर्सी,
बनें विधायक ऊपर बैठें,
चढ़ी मगज में तुरसी,
पीली धोती उरसी,
राजनीति है गुड़ सी,
लाज हया सब धोई।
जाति वर्ण का खेल खेलते,
तनकर खड़े खिलाड़ी,
महाभारती सेना जैसी,
जनता सीधी आड़ी,
अपना दाँव लगाना,
गुड़ फेंका ललचाना,
लो निचोड़ मत छोई।
🪴 शुभमस्तु !
२४.०८.२०२२◆१.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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