344/2022
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✍️ शब्दकार ©
🪀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मिला एक दिन
पथ में मुझको,
पूछा मैंने:
'हे कलियुग जी!
अभी कहाँ तक
पहुँचे हो!
आँख बचाकर
गए वहाँ भी
जहाँ कहीं भी
मैं-मैं चें-चें ।'
'जहाँ हो रही
कथा भागवत,
बंटता हो जिस ठौर
सदावर्त,
होली ईद दिवाली,
बिना बजाए ताली,
घुस जाते हो,
खून-खराबा करवाते हो।'
बोला वह
आँखें चमकाता,
सुस्मिति- सी
अधरों पर लाता:
'अब तो
आने वाले मौसम सारे
मेरे ही मधुमास हैं,
रिश्तों में
मानव - मानव में,
बनकर घुसता हूँ
दानव मैं,
भावी समय सुनहरा है,
जहाँ कहीं भी
तुम जाओगे,
मुझ कलियुग को
नित पाओगे,
निकट न कब तक
तुम आओगे ?
कुशल न शेष तुम्हारी।'
'पुण्य कर्म में
पाप बना मैं,
कहीं अहं तो
कहीं गुनाह मैं,
ज्यों नाले की दुर्गंध,
मानव होता अंध,
करता,
करवाता मैं द्वंद्व,
मेरी प्रकृति में
रहते हैं नित्य
निरन्तर छल - छंद,
धर्म धुरंधर पापी पहले,
दिखलाने को
माला चंदन!'
नेता अवतारी
हैं मच्छर,
भले न जाने
काला अक्षर,
पर दिखलाते
सबके ऊपर,
यही देव हैं
अब तो भूपर,
मानव देवी धन्य
इन्हें ही छूकर,
हिम्मत किसकी
जो कोई भी
बोले चूं भर।
इतने से ही
'शुभम्' समझ ले
तू भी मूँ भर।'
- और वह
खिलखिल करता ,
जनसभा मंच पर
जा विराज गया।
🪴 शुभमस्तु !
२५.०८.२०२२◆१०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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