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✍️व्यंग्यकार ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्
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हम सब सदा से उत्सव प्रिय हैं,उत्सवपसन्द भी हैं। उत्सवप्रियता हमारे स्वभाव का एक अहम अंश है।जितना निर्देशित किया जाए उससे भी मीलों आगे बढ़कर उत्सव का सौन्दर्यवर्धन करना हमारे दैनिक क्रियाकलाप का अंग ही बन गया है। इसके लिए चाहे कोई नियम भंग होता हो या आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ती हों;हमें इससे इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है।उड़ें तो उड़ती रहें। हमें अपनी मस्ती से काम।
देश की स्वाधीनता की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ को अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जाना था। बड़े जोश -ओ - खरोश के साथ मनाया भी गया। और स्कूटी, बाइक, ट्रेक्टर, कार ,तिपहिया, ट्रक, छत, पानी की टंकी , घर की ऊँची मुँड़ेर ,सबको नई दुल्हन की तरह तिरंगे से सजा दिया गया।रेशमी, खादी, कागज,प्लास्टिक और न जाने किस - किस के रेशों से निर्मित तिरंगे फरफराने लगे। लगाकर झंडे उनके मालिक देश भक्ति के रंग में ऐसे रँग गए कि नियम औऱ ध्वज की आचार संहिता तो झंडों से भी ऊपर आसमान में ऐसे टाँग दी कि उसको पुनः देखना ,समझना और अनुपालन करना भी आवश्यक नहीं समझा गया।सरकार का जो आदेश 13 अगस्त से 15 अगस्त तक था ,वह अनिश्चित कालीन हड़ताल की तरह आसमान में ही टंगा ही रह गया।एक बार तिरंगा बाँध कर भूल गए कि उसे सम्मान सहित उतार कर नीचे भी लाना है।उसे कब टाँगना है कब उतारना है ,इसकी भिज्ञता से बेखबर देशभक्त गण तिरंगोत्सव का मनचाहा अवधि -विस्तारण करके ऐसे आकंठ डूब गए हैं कि जैसे आज उन्हें ही राष्ट्रपति का पदभार हस्तांतरित कर दिया गया हो।
तिरंगा न होकर यह एक फैशन और उसका फैशनोत्सव होकर रह गया है। वास्तव में देश भक्ति हो तो ऐसी कि आचार संहिता को भी फहरा दिया कि चल तू भी झंडे की तरह लहरा ले ,फहरा ले।ऐसा अवसर फिर हाथ में आया कि नहीं आया तू दीवाली होली की तरह मस्ती मना ले। अब यह तिरंगोत्सव न होकर फैशनोत्सव में बदल गया है। फैशन प्रेमी तो मानव है ही। उसे तो बस बहाना भर चाहिए था ,सो वह उसे मिल गया है। इसलिए आज भी उनके ट्रैक्टर, कारों, पानी की टंकियों पर बाकायदा लहरा रहे हैं ।ये अलग बात है कि आदमी के साथ- साथ बंदर भी छतों और टंकियों के तिरंगों का सदुपयोग कर उनकी छत पर सुसज्जित जल - आशयों में गोते लगा-लगा कर आनंदित हो रहे हैं।
देशवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि तिरंगे की भी कोई आचार संहिता होती है। उसे चढ़ाने उतारने के भी कोई नियम होते हैं। जब देश स्वतंत्र हो गया तो देशवासी भी 'सब कुछ' मनमाने ढंग से करने के लिए स्वतंत्र हो गए। उन्होंने राष्ट्र ध्वज को अपने अंत:वस्त्र या पेंट -कमीज, कुर्ता सलवार की तरह समझ लिया है कि जब तक चाहो ,जैसे चाहो, पहनो, फट जाए तो भी लटकाये रहो। उनकी दृष्टि में तिरंगा देश की अस्मिता का प्रतीक नहीं है। उनका देश भी तो कुएँ के मेढक की तरह उतना ही है ,जितने तक वे टर्रा सकते हैं।अपनी टर - टर्र पंहुँचा सकते हैं। वे जो कुछ भी कर लें ,वही नियम है; वही आचार संहिता है।
आज तिरंगा अनेक 'भक्तों' के लिए अपनी राजनैतिक भक्ति का साधन भी बन गया है।झंडे के सहारे ही वे भक्ति के डंडे पर चढ़कर 'ऊपर' पहुँचने के लिए लालायित हैं।मूर्खों को महामूर्ख बनाने का एक तुरुप का ताश उनके हाथ में है।जो जन देशभक्ति का अर्थ भी नहीं जानते, उनका निजी घर ,गाड़ी ,टंकी, वाहन सभी तिरंगों से सजे हुए हैं। भारतवासियों को किसी चीज को भुनाना खूब आता है। भुनभुनाने के तो वे उस्ताद ही हैं।
स्थिति यह है कि उनके घरों में बिजली के पंखे अनावश्यक घूम रहे हैं, रात दिन बिजली जलाई नहीं फूँकी जा रही है। नगरपालिका के प्रायः सभी नलों को जुकाम हो गया है, पर कोई भी देखने करने वाला नहीं है।नाले बनवाकर कभी भी सफाई न कराने की शपथ लिए हुए बैठी नगरपालिका से आप कुछ कह नहीं सकते। वे इतने व्यस्त हैं कि मच्छर पालन केंद्र के रूप में कस्बों को बना दिया गया है। डॉक्टरों को खुश जो बनाये रखना है।
मच्छर होंगे तो डेंगू आदि बीमारी बढ़ेंगी और इसका लाभ डॉक्टरों को मिलेगा। अहसान किसका ? चेयरमैन साहब का। अब तिरंगा तो एक आवरण मात्र बना रह गया है। इसके नीचे चाहे कितने दोष ढाँप लीजिए। सब देशभक्ति ही कहे जाएंगे। यह लहरा फहरा कर जितने काम करता है ,उससे ज्यादा आवरण बन कर सुरक्षा का अमोघ कवच भी बन जाता है।बहुआयामीय है हमारा तिरंगा।देशभक्तों को इसकी रक्षा की आवश्यकता ही क्या ,यह तो स्वयं उनकी भी रक्षा कर देता है। यही कारण है कि वे एक बार टाँग कर टाँगें रहने में ही अपना भविष्य उज्ज्वल समझते हैं।यदि तिरंगे ने उनकी रक्षा नहीं की, तो उनकी टाँगें ही न टाँग दीं जाएँ। इसलिए 'भक्तों' ने सोचा कि ऐ तिरंगे! तू ऐसे ही सदा छत पर लहराए।हम तुझे एक बार टाँग चुके तो क्यों उतार कर नीचे लाएं।
भले ही हम गाते रहें:
इसकी शान न जाने पावे।
चाहे जान भले ही जावे।।
🪴 शुभमस्तु !
२०.०८.२०२२◆ ८.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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