342/2022
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✍️ शब्दकार ©
🔑 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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पाई यहीं , यहीं पर खोई,
साथ न ऊपर जाती।
एक छिद्र से बाहर आई,
माँस पिंड-सी काया,
हवा लगी तब खोली आँखें,
जग में जीव लुभाया,
विस्मृत कर परतीती,
गर्भ-कोठरी रीती,
याद नहीं अब आती।
ओढ़ी खाल जाति की आपद,
करके जाति - सवारी,
ऊँचा-नीचा छोट- बड़ापन,
की बस सोच - विचारी,
बन मंडूक कुँए में,
कुंचित केश जुंए में,
बनी जाति ही थाती।
कोई बाँभन, ठाकुर, बनिया,
तेली ,जाटव ,लोधी,
नाक सिकोड़ें भीत परस से,
शोधी, बोधी , औंधी,
जाति न पूछे कोई,
खूनी सुई चुभोई,
शीतल होती छाती।
स्वाद जीभ का मांसाहारी,
स्वस्थ बनाए अंडा,
कदम- कदम पर बदले अपना,
मानव झूठा फंडा,
स्वार्थ भरी चतुराई,
सारे लोग - लुगाई।
मनमाती ही भाती।
🪴शुभमस्तु !
२४०८२०२२◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।
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