बुधवार, 24 अगस्त 2022

पाई यहीं,यहीं पर खोई 🧸 [ गीत ]

 342/2022


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✍️  शब्दकार ©

🔑 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पाई  यहीं , यहीं पर खोई,

साथ न  ऊपर  जाती।


एक  छिद्र  से  बाहर  आई,

माँस  पिंड-सी  काया,

हवा लगी तब खोली आँखें,

जग में जीव लुभाया,

विस्मृत कर परतीती,

गर्भ-कोठरी    रीती,

याद   नहीं   अब  आती।


ओढ़ी खाल जाति की आपद,

करके जाति  - सवारी,

ऊँचा-नीचा   छोट-  बड़ापन,

की  बस  सोच - विचारी,

बन  मंडूक  कुँए  में,

कुंचित केश जुंए में,

बनी  जाति  ही  थाती।


कोई बाँभन, ठाकुर,  बनिया,

तेली ,जाटव ,लोधी,

नाक सिकोड़ें  भीत  परस से,

शोधी, बोधी , औंधी,

जाति न पूछे कोई,

खूनी  सुई  चुभोई,

शीतल होती छाती।


स्वाद जीभ का मांसाहारी,

स्वस्थ बनाए अंडा,

कदम- कदम पर बदले अपना,

मानव  झूठा  फंडा,

स्वार्थ भरी चतुराई,

सारे लोग - लुगाई।

मनमाती  ही  भाती।


🪴शुभमस्तु !


२४०८२०२२◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।

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