332/2022
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✍️ शब्दकार ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्
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लीलाधर ,
लीलावतारी,
लीलाधाम में
आज लीला करेगा,
घर - घर
मंदिर - मंदिर
मानव की तरह
जन्म में शिशु बन
अवतरेगा।
लीलाभूमि है
यह भारत,
अवतरित होते रहे
यहाँ सदा राम श्याम
मानव रहा सदा आरत,
फिर भी रहा गारत,
कैसा है इस जन का
स्वार्थ भरा परमारथ!
होती रही जब- जब
धर्म की हानि,
सिमटने लगी
जब नर- नारी की कानि,
भुला बैठा जब
अपनी अस्मिता पहचान,
आदमी का आदमी पर ही
तीर संधान!
हिन्दू की हिन्दू से
छुअन - छुआन,
कोई ईसाई कोई मुसलमान,
क्या यही है आज का
नया इंसान?
फ़िर कैसे करें
मानव देहधारी का
मानव - रूप में संज्ञान?
हो गया
कहाँ नहीं
वह पशु समान!
क्या करें लीलावतारी
बचाएँ कैसे उसका मान?
निर्वसन स्नान पर
लाज बचाने वाले!
नारियों को सिखाने
चेतावनी देने वाले!
क्या आज की नारी ने
कुछ भी संज्ञान लिया?
अपनी ही मर्यादा को
अपने ही हाथों
क्या स्व- नग्नता में
डुबा ही न दिया?
पुनः - पुनः क्या चेताना!
ईश्वरीय चेतावनी की
मिट्टी पलीद करवाना?
क्या उचित होगा?
क्या उसी लीला को
पुनः दोहराना होगा?
द्वापर था तब,
चल रहा अब कलयुग!
कोई किसी की
नहीं मानता,
अपने ही अहं में
मनमानी करता
विलोम ठानता,
भले ही वह
कुछ नहीं जानता,
पर क्षत -विक्षत ध्वज को
छत,कार ,बाइकों पर तानता।
क्या यही देशभक्ति है?
फिर क्यों श्याम
कुंजों में मुरली बजायेगा,
तुम्हारे प्लास्टिक
सुमन सज्जित
सजावट - धाम पर
नंगे पैरों
दौड़ा चला आएगा?
क्या अशरीरी
शरीर धर कर
'शरीर' को बचाएगा!
आज उसी अशरीरी का
शरीर धरने का,
लीला मंच का
पर्दा उठेगा,
लगाकर तिलक चंदन
मानव की बुलंद बोली का
जयकारा जगेगा,
हे श्याम !
वह तुमसे कम
नाटकबाज जो नहीं है,
वेश बदल कर
क्या कुछ करने में
सक्षम नहीं है ?
🪴 शुभमस्तु !
१८.०८.२०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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