339/2022
[झरोखा, छीर,तीर,बिजना,मौका]
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✍️ शब्दकार ©
🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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🪂 सब में एक 🪂
नयन- झरोखा बैठकर, देख लिया संसार।
दुर्लभ छवि हे कामिनी, तू रति की अवतार।
बंद झरोखा चारु दृग,फिर भी दिखते श्याम
सूर नहीं हिय से हुए, दर्शन दें अविराम।।
यमुना-जल गोपी घुसीं,तन पर वस्त्र न छीर।
कान्हा को भाया नहीं, जब आए वे तीर।।
गो माता के छीर का, जग में पावन नाम।
जी भर कान्हा ने पिया,गोपालक अभिराम।।
राधा, मोहन, गोपियाँ, आए यमुना - तीर।
क्रीड़ा कुंजों में करें,पिक शिखि सुंदर कीर।।
मार नहीं दृग - तीर तू, उर में होते घाव।
हे कामिनि ब्रज-अंगने, बदल रहे मम भाव।।
बिजना की सद वायु से,मिले न उर को चैन।
घायल मम अंतर हुआ,मिले श्याम से नैन।।
बिजना विरहिन को नहीं,भाए नींद न रैन।
जब से नैनों में बसे, मदन मुरारी मैन।।
प्रेमी मौका देख कर, ढूँढ़ प्रिया का गेह।
गुपचुप जा मिलने गया,जतलाने उर -नेह।।
मौका जो नर छोड़ता, पछताता सौ बार।
स्वर्णिम क्षण मिलते कभी,बंद न करना द्वार
🪂 एक में सब 🪂
खोल झरोखा गेह का,
सरि यमुना के तीर।
बिजना ले बाला खड़ी,
मौका पा कर छीर ।।
🪴शुभमस्तु !
२३.०८.२०२२◆१०.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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