700/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मंच पर
चटखारने को
चाहिए कुछ तो मसाला।
उछला करें
वे पेट पकड़े
उधर हँसगुल्ले फटें
कान में
रसधार बरसे
छितरा हँसें अपनी लटें
कौन सुनता
आज कविता
चाहिए मदमस्त प्याला।
अब जरूरत
है न कवि की
बस लतीफेबाज हों
चीखते
चिल्ला रहे कुछ
जीभ की खुरफात हों
मस्त हों
कुछ खूबसूरत
नचनिया हँसव्यस्त बाला।
मंच कीचड़ में
सना हो
हास्य की पिचकारियां
दर्शकों की
भीड़ रसिया
कुछ लचकती नारियाँ
फिर खुले
कैसे न कवि का
बंद जो संत्रस्त ताला।
शुभमस्तु !
28.11.2025●7.15प०मा०
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