गुरुवार, 26 मार्च 2020

गधाऐ नोंन दऔ [ व्यंग्य ]

✍ लेखक ©
 ✅ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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              एक देशी कहावत बहुत प्रसिद्ध है:'गधाऐ नोंन दऔ, गधा नें कही कै हिये की ऊ फोरीं'। कभी - कभी ये कहावत सौ फीसद आदमी पर चरितार्थ होती नज़र आती है। यद्यपि ये कहावतें और मुहावरे आदमी के द्वारा आदमी के लिए ही बनाई जाती हैं ,जिनमें बहुत से पशु , पक्षियों ,कीड़े मकोड़ों को आधार बनाकर कही जाती रही हैं।जैसे : बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, जल में रहकर मगर से बैर करना ,लंगूर के हाथ अंगूर, अंधे के हाथ बटेर लगना, ऊँट के मुँह में जीरा, एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है , खग जाने खग  ही  की भाषा, आस्तीन का साँप, पेट में चूहे कूदना , भैंस के आगे बीन बजाई  आदि आदि।

         आज भी देश और दुनिया के हालात भी कुछ इसी प्रकार के हैं। उन्हें कितना भी समझा लिया जाए ,पर उनकी समझ में आने वाला नहीं हैं। जब अक्ल का दिवालिया पन हो जाता है ,तो आदमी को कितना भी समझा लीजिए , पर रहते वही ढाक के तीन पात ही हैं ।उनके चिकने भेजे से सुझाव वैसे ही बह जाता है , जैसे चिकने घड़े से पानी।क्या करें आख़िर ऐसे प्राणी। उन्हें लकीर के फकीर होना ही पढ़ाया गया है। वे बनी बनाई लकीर पर चलने में ही अपने अहम की तुष्टि मानकर हर्षित हैं। लकीर से उतरे कि धड़ाम से नीचे गिरे। उन्हें यही डर हर वक्त सताता रहता है।'कोई क्या कहेगा ?' का भूत जो सवार है उनके ऊपर।वह भूत उन्हें कुछ भी नया सोचने और करने के लिए उनकी बुद्धि कुंठित किए रखता है।

          आदमी है ,तो विवेक तो होगा ही, ऐसा माना जाता है। भेड़ बनकर भीड़ का हिस्सा बनने में कोई समझदारी नहीं है। आज उसी भीड़ से बचने के लिए कहा जा रहा है। यदि भीड़ से बचोगे तो भाड़ से भी बचे रहोगे। यदि भीड़ में रहे तो भाड़ भी दूर नहीं है। ये आत्महंता प्रवृत्ति अंधभक्त के लिए निश्चित ही भाड़ में झोंकने वाली है। कहा गया है कि   'सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।पारस परस कुधातु सुहाई।।'  पर शठ अपनी शठता नहीं छोड़ना चाहे ,तो कोई भला क्या कर सकता है? साँप भले ही चंदन के पेड़ से लिपटा रहे , उसके साँपत्व में अंतर नहीं आता। उसमें न चंदन की  खुशबू आती है और न ही शीतलता ही । वह  जहर का कहर भरे हुए साँप ही बना रह जाता है।

               यही हाल देश के कुछ लोगों का है। गोबर के गुबरैले को गोबर कलाकंद नज़र आता है।उसकी महक में उसे इत्र भी मूत्र दिखता है।अपनी गोबर की छोटी सी दुनिया से वह बाहर नहीं आना चाहता।एक छेद करके उसमें घुस जाना और उसी की कंदरा में बैठकर चैन का राग अलापना उसकी अटल , अचल दिनचर्या है। उससे वह टस से मस नहीं होता और न ही सोचता है।  आदमी के शरीर में गुबरैले का जीवन जीना ,  उसे पसंद है तो है  ।  हम और आप भला क्या कर सकते हैं।

        कोरोना की काली छाया सारे संसार के ऊपर मौत की वर्षा कर रही है। सारा जगत त्राहि माम ! त्राहि माम!! करते हुए चीख -चिल्ला रहा है , पर तथाकथित गुबरैलों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। भगवान भी उन्हीं की रक्षा करता है ,  जो अपनी रक्षा करता है। जो अपनी रक्षा नहीं करता , उसे वह बिना पतवार की नाव की तरह प्रवाह में बहने के लिए छोड़ देता है। इसलिए कहा गया है :
  सबते भले वे मूढ़ जन जिन्हें न व्यापे जगत गति।
फूलहिं फरहिं न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद।। 
 💐 शुभमस्तु ! 26.03.2020 ◆6.30 अपराह्न।
[ व्यंग्य ]

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