शुक्रवार, 6 मार्च 2020

रँग बरसै होरी कौ [ ललित लेख ]

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✍ लेखक ©
🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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            फूलों की कमान तैयार है। तने हुए तीर भी बेशुमार हैं। तीर चल रहे हैं।तीर लग और चुभ रहे हैं। सब कहीं हो रहे हैं जन घायल।मात्र बजती सुनाई पड़ रही हैं मधुर पायल। पर घाव नज़र नहीं आते हैं ।हम सोच -सोच रह जाते हैं ।सुना , भंवरा गुंजार रहा है।जैसे कोई किसी को पुकार रहा है।

           किसी ने कहा मधुमास आ गया है। यहीं कहीं पास आ गया है। पर दिखाई तो नहीं देता।कहीं सुनाई ही नहीं देता। शायद उसने अपना रूप बदल लिया है।दल के सँग चल दिया है। साथ में फूलों की बहार है। लिए हैं साथ अनेक उपहार । गेंदा है , गुलाब है , गोल्डमोहर भी उदार । जंगल में मंगल करता हुआ टेसू फूल भी है।लगता है कि लग गई है वन में भयंकर आग।अरे !तू कहाँ सोता है जाग ! रे नर जाग!!

               अमराई में बौराये में बाग। आमों पर लदे हैं भरे -भरे झाग। वहीं कहीं आधी रात को महुआ चू रहा है। धरती की गोद में खुशबू बो रहा है। देखो ! देखो !! भोर होते ही आ गए हैं वृद्धाएं छोटे बच्चे। उठा उठाकर झोली में भर रहे हैं महुआ के फूल पक्के। आ हा हा कैसी मीठी - मीठी सी गमक है । धरती से उठती हुई एक महक है। वह सुनो , भोर का उजाला और भी बढ़ गया है। लाल -लाल मुँह चमकाता रवि ऊपर चढ़ गया है। पेड़ की शाखाओं पर बोल उठी हैं चिड़ियाँ। तोते ,केन्के, पिड़कुलिया, गौरैया। हूक सी जगाती कोयलिया। जाग गया है भोला किसान। खेती ही तो है उसकी पहचान। उसकी शान।सारे परिवार के पोषण की जान। वह खेतों की ओर चल दिया है। जीवन में उसने सिर्फ दिया ही दिया है।

             देखते ही देखते होली भी आ गई। वह देखो हुरिहारों की टोली भी छा गई। कोई गा रहा है। कोई बजा रहा है। कोई नाचने में मतवाला है। कोई भंग की तरंग में निराला है। छतों से हुरिहारनें रंग बरसा रही हैं। नीचे से पिचकारियां ऊपर रंग फिंकवा रही हैं।फ़ाग और कबीरा के संग झूम रहे हैं। आपस में गले मिल सब स्नेह से चूम रहे हैं। छू रहे हैं अपने बड़ों के चरण। किया है हमने सुसभ्यता का आचरण।बच्चे भी क्यों रहें किसी से पीछे। कभी वे छत पर हैं , झट आ गए हैं नीचे। असली होली तो उन्हीं से है। न ऊँच -नीच न कोई भेदभाव। उनके हृदय में है नेह सम्मान का सद्भाव। खाते हुए मिठाईयां औऱ खेलते हुए रंग। न मम्मी का साथ न पिताजी का संग। सभी चेहरे बदरंग ।पर मन में भरा है उत्साह उमंग। कोई किसी के कहे का बुरा नहीं मानता। आज तो होली है ये कौन नहीं जानता? सबके सब गिले दूर हैं। गले से मिल रहे हैं गले , उड़ता गुलाल का नूर है। भाभियों ,सालियों और सलहजों ने रंग दिए हैं अपने देवर , जीजा और ननदोई ।गुलाल से गाल गुलाब हो रहे हैं। चंदन की महक में शबाव बह रहे हैं। बज रहे हैं ढप , ढोलक और मंजीर। बढ़ती चली जा रही है नर ,नारियों ,बालकों की भीड़। कोई भाँग तो कोई कोई बोतल वासिनी के साथ है। रँगे हुए रंगों में सभी के दोनों हाथ हैं। कान से कान लगाये हुए भी कुछ सुनाई नहीं देता है। ।मुखौटों के नीचे असली चेहरा दिखाई कब देता है! नालियों- नालों में बह रहा है रंग। बज रही हैं झमाझम चंग । करताल की अपनी ही धुन है। उधर सुहागिनों की पायल की छमछम है।चारों ओर बस बहार ही बहार है। न किसी की जीत न किसी की हार है। अरे !भैया जी ये हमारा होली के रंगों का त्यौहार है।

                  अरे ! नेंक इतै बिरज में तौ झांकि लेउ। नंदगाँव , बरसानों , मथुरा , दाऊजी सबकौ रंगु देखौ। गोप- गोपियां लठमार होली खेलिबे में मगन हैं। फूलन की होरी , लडुअन की होरी , लट्ठनु की होरी। ऐसी ऐसी होरी , जो सिगरे देश में सुनी देखी हू ना होय। जाय देखिबे के लयें सिग दुनिया के लोग -लुगाई आवैं।अब हम तुमें यां बेठीकें का बतावें। खुद जाय कें देखि न आऔ। तब लौटि कें हमें हूँ बताओ।
 बोलि वंशी वारे की जय !
 राधा के प्यारे की जय!!
जसुदा नंद दुलारे की जय!!!

 💐शुभमस्तु !
 06.03.2020 ◆7.45अप.

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