शनिवार, 14 मार्च 2020

इतिहास-निर्माण अंधों से होता है! [ लेख ]

✍ लेखक ©
 🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 भीड़ को भेड़ों का पर्याय मानें तो कोई आश्चर्य करने की बात नहीं है। भीड़ में तो भेड़ ही शामिल हो सकती हैं। मेरे अनुसार यह कहा जा सकता है कि जो भय से भीत है , अर्थात डरा हुआ है, वही भीड़ है। भयभीत को ही भीड़ का सहारा चाहिए। जिसके पास सत्य का साथ है, वह कभी भीड़ का अंग नहीं होता। कहना यह चाहिए कि भीड़ का कोई निर्धारित नीड़ नहीं होता।

 जो व्यक्ति भीड़ का एक अंग होता है , उसे भीड़ का एक सहारा होता है। उसे हर समय यह अनुभव होता है कि वह अकेला नहीं है। इतने लोग जो उसके साथ चल रहे हैं , अथवा यह कहें कि वह इतने लोगों के साथ है । वह सोचता है कि क्या इतने लोगों की सोच ग़लत हो सकती है? बस इसी विश्वास के साथ वह अपने विवेक की आँखें बंद कर लेता है और बिना पट्टी बांधे हुए भी वह उसके पीछे अन्धवत चलता रहता है। इसे यदि अंधानुकरण कहें तो कोई बात नहीं होगी। यह भीड़ का सहारा और उसे ही सत्य समझ लेने का भ्रम चाहे गड्ढे में ले जाये या आग में झोंक दे , उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।

 भीड़ में चल रहे व्यक्ति का अपना निजी व्यक्तित्व भी मर जाता है। अकेले चलने वाले व्यक्ति से वह सर्वथा विपरीत होता है। यद्यपि अकेले चलने वाला सर्वांश में सत्य ही हो , यह भी अनिवार्य नहीं है। चूँकि उसका विवेक जागृत रहता है , इसलिए उसे भीड़ से पूछने की आवश्यकता भी नहीं रहती।वह सत्य का अनुसंधान करने में सक्षम होता है किंतु भीड़ सत्य की खोज से सर्वथा दूर ही रहती है। बहिर्मुखता का नाम ही भीड़ है। भीड़ केवल बाहर ही देखती है।वह अपने अंतरतम में नहीं झाँक सकती , क्योंकि भीड़ का अंतरतम होता ही नहीं है। भीड़ सदा सत्य से दूर ही रहती है।

 यदि कोई व्यक्ति भीड़ का नेतृत्व करता है , तो भीड़ को अंधा बनकर पीछे - पीछे चलने का एक और सहारा बन जाता है।यदि आगे चलने वाली भेड़ कुँए में गिरती है , तो यह भी सुनिश्चित है , कि अनुगामिनी सभी भेड़ें उसी कुँए में गिरेंगी ही। राजनीतिक अथवा मजहबी अन्धानुगामियों की स्थिति कुछ इसी प्रकार की होती है। अंधा अपने आंतरिक विवेक की हत्या पहले ही कर चुका होता है , जब उसे भीड़ या उसके तथाकथित नेता रूपी अंधे की लकड़ी का सहारा मिल जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। चरित्र सदैव व्यक्ति का ही होता है।

 लाओत्से का कथन है :'भीड़ के सामने सत्य कहो तो भीड़ पहले हँसेगी, और यदि तुम कहते ही चले जाओ तो भीड़ तुमसे बदला लेगी।भीड़ डरने लगेगी कि तुम कहे ही चले जा रहे हो ,कहीं कुछ लोग भीड़ में तुमसे राजी ही न हो जाएं। कहीं ऐसा न हो कि कुछ लोगों को तुम्हारी बात ठीक ही न लगने लगे।' भीड़ का यह विश्वास उसे सत्य को सुनने , मानने , विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए सिरे से नकार देता है। यही कारण है कि जब जीसस ने अपने को और सबको भी ईश्वर का बेटा बताया तो उनकी हँसी इसी भेड़ और भीड़ के द्वारा बनाई गई और अंततः उसी भीड़ के द्वारा उन्हें फाँसी दे दी गई। लोग सूली पर चढ़ाते हुए जीसस को देखने के लिए इसलिए एकत्र नहीं हुए कि परमात्मा के पुत्र को सूली पर चढ़ाया जा रहा है , बल्कि उनका उपहास करने के लिए ही एकत्र हुए थे। यह वही भीड़ का फैसला और उसका किया गया कृत्य।

 इतिहास का निर्माण अंधों से होता है। भेड़चाल से ही इतिहास की रचना होती है और होती रहेगी। भेड़ों के पास सूझबूझ नहीं होती । वे केवल अंधानुकरण भर जानती हैं।लगता है हर एक के गले में हर अगली भेड़ की पूँछ बँधी हुई है। और वे पीछे -पीछे चलती चली जा रही हैं। जिंदाबाद कहो तो जिंदाबाद और मुर्दाबाद कहो तो मुर्दाबाद। इसी सूत्र से है भीड़ या भेड़ों का अस्तित्व आबाद। महात्मा कबीर बहुत पहले ही कह गए हैं : 'अंधा अंधे ठेलिया , दोनों कूप पडंत।' अंधों के द्वारा अंधों को धक्के दिए जा रहे हैं। अंधों के नेता अंधे बने हुए हैं। अंततः सबको कूप में गिरना ही है । सब देख भी यही रहे हैं ।चूँकि प्रायः सब लोग भेड़ बने हुए हैं। इसलिए न कहीं विवेक है , न प्रेम और न सत्य । इसीलिए सबका जीवन एक भार बना हुआ है।नर्क में रहने वाले प्रश्न कर रहे हैं कि क्या कहीं नर्क है?

 💐 शुभमस्तु
! 14.03.2020 ◆8.30 पूर्वाह्न।




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