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✍ शब्दकार ©
🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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साँप औ' नेवले हो गए साथ हैं।
एक दूजे के धुलवा रहे हाथ हैं।।
वतन को वतन वे समझते नहीं,
खुद को समझे हुए वे सुकरात हैं।
जान पर आ गई याद माँ को किया,
पत्थरों को समझते हुए नाथ हैं।
जाति मज़हब की दिवारें ढहने लगीं,
भाईचारे की करते हुए बात हैं।
आदमी ख़ुदपरस्ती के बुत हैं 'शुभम',
भूल जाते वे असल मुए औकात हैं।
💐 शुभमस्तु !
28.03.2020●7.00अप.
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