गुरुवार, 19 मार्च 2020

मन [लघु लेख]

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✍ लेखक © 
🌸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                   एक छोटा -सा शब्द 'मन'। शब्द छोटा ,लेकिन काम ? बहुत बड़ा । बहुत ही बड़ा। इसीसे चलता है समस्त जीवन।सारे संतुलन का आधार - मन। गति ,ऊर्जा , और चेतना से लबालब भरा हुआ।प्रकाश की गति से भी लाखों गुणा इसकी गति।इसी से गति ,इसीसे अगति।लेकिन नाम छोटा - सा :मन।
                       मन के ही साथ चलने वाला शब्द: 'अमन'। अमन अर्थात शांति। इस शांति की सबको विशेष आवश्यकता। लेकि न बिना मन भी तो नहीं जिया जा सकता ! इस विश्लेषण से यह भी तो स्प्ष्ट हुआ कि यदि अमन नाम शांति का है ,तो मन अशांति का नाम होगा ही। यह मन भी आवश्यक और अमन भी आवश्यक। लेकिन यह कैसे हो सकता है ? जब मन है ,तो शांति कहाँ? उसे तो निरंतर चलना ही है। मन के बिना जीवन कहाँ? दुनिया के सारे खेल , नाटक, कला , साहित्य , विज्ञान सब कुछ मन से ही संचालित है। मन शांत तो सब कुछ शांत।जब तक जीवन है , मन ही का आँगन है ,जिसमें जीव आत्मा खेलता है।तन से मन के बाहर हो जाने पर तो अमन ही अमन है। तभी तो दिवंगत आत्मा अथवा जीवात्मा के लिए शांति, परम् शांति की कामना की जाती है। यद्यपि यह परम शांति (अमन) हमारी कामना से नहीं मिल पाती । हम मात्र कामना करने के ही अधिकारी हैं। कामना का सम्बंध भी मन से ही है। मन है तभी तो कामना की जा रही है। यदि यह न होता ,तो कामना भी नहीं हो सकती थी। मन से ही मनन है , चिंतन है , मंथन है।मन से ही आचार है , विचार है ,चाहे वह सद्विचार हो अथवा दुर्विचार! कभी मेरा मन करता है , कभी नहीं करता । कभी लगता है , कभी नहीं भी लगता। कभी मन मर भी जाता है। आदमी शरीर से भले ही जिंदा हो। पर मन के मरने की घोषणा कर देता है।फिर वही मन जिंदा हो जाता है। चमत्कारिक है इंसान का मन । मन की हर धड़कन कुछ कहती है।कभी भी मन ने विश्राम करना नहीं सीखा। माता के गर्भ में पाँच माह के भ्रूण में धड़कना प्रारम्भ करके देह से प्राणों का निष्क्रमण होने तक चलता ही रहता है। वस्तुतः मन नाम ही जीवन का है।
                देह को छोड़ने के बाद मन की आत्मा के साथ विद्यमानता इस बात से सत्य सिद्ध होती है कि मन आत्मा के साथ फिर भी रहता है।क्योंकि उसके बाद जीवित लोगों के द्वारा उस दिवंगत आत्मा की शांति के लिए परम् पिता परमात्मा से प्रार्थना की जाती है कि उस आत्मा को शांति प्रदान करे , जो अपना पार्थिव शरीर छोड़कर उसके पास चली गई है। यदि उस सूक्ष्म आत्मा में मन नहीं होगा तो वह क्योंकर अशांत होगी ? औऱ कैसे शांत हो जाएगी ?यद्यपि यह सब कुछ उसके विगत जीवन के सत या असत कर्मों पर निर्भर करता है।यदि उसके कुछ कर्म करने के लिए शेष रह गए हैं, तो आत्मा अधिक अशांत रहेगी । आत्मगत सूक्ष्म देह की मन की अशांति या शांति का कारण उसके अतीत के कर्म ही हैं। जब तक उस आत्मा का लगाव इस संसार के प्रति रहता है , उसकी अशांति का कम होना संभव नहीं है। शरीर रूपी साधन के बिना वह सूक्ष्म शरीर कुछ भी करने में असमर्थ ही रहता है। उसकी अशांति बढ़ने का एक प्रमुख कारण यह भी है।
             मानव शब्द में भी मन समाहित है । इस मन को मानव से निकाला नहीं जा सकता। जब वह निकल जाता है , तब तो इस शिव देह का शव बन जाता है। फिर उसे कोई मानव नहीं कहता। फिर केवल देह, शरीर, बॉडी , शव - कुछ भी कहें , पर मानव नहीं रह सकता । देह को छोड़ देने के बाद सूक्ष्म शरीर , चाहे वह देव, भूत, प्रेत ,जिन्न , जिस किसी भी योनि में    हो , मन वहाँ भी विद्यमान रहता है। वह सूक्ष्म शरीर इस मन के कारण ही उसी प्रकार के भोग भोगने के लिए उत्सुक रहता है , जिस प्रकार एक जीवित देह में वह विभिन्न ऐच्छिक भोगों को भोगता है।
                मन औऱ अमन के बीच यह सारा संसार झूलता रहता है। मन और अमन का संतुलन ही जीवन है।न केवल मन से ही काम चलना है और न अमन से ही। परम लक्ष्य अवश्य होना चाहिए और है भी। यदि देह छोड़ने के बाद भी शांति नहीं मिली ,तो जीवन की अपूर्णता औऱ 84 लाख यौनियों में भटकाव औऱ किसे कहा जायेगा।
 💐 शुभमस्तु !
 19.03.2020 ◆3.55 अप.

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