गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

भैं-भैं भेड़ें करतीं 🐑 [ नवगीत ]

 549/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अपने - अपने रेवड़ में खुश,

भैं  - भैं  भेड़ें करतीं।


मैं - मैं बकरा - बकरी करते,

और नहीं कुछ सुनना,

भैंसें  लड़ामनी   पर   रेंकें,

जंजीरों  में  बंधना,

बोलें    बोली   न्यारी,

चट औरों  की क्यारी,

गायें क्यों गाएँ कजरी धुन,

खड़ी फसल को चरतीं।


फूट डालकर साँड़ - झुंड में,

शेर उन्हें खा जाते,

अगड़े - पिछड़े की परिभाषा,

देकर भेद जताते,

ऊँची बनी दिवारें,

लंबे भाषण झारें,

हार- जीत की राजनीति है,

कहने से वे डरतीं।


मतलब को सब हिन्दू भाई,

ऊँची  कुर्सी  उनकी,

दूर रहो अनुसूचित पिछड़े,

करें सदा हम मन की,

अपनी  न्याय- तराजू,

खाएँ  हम  ही  काजू,

चरण पूज्य  हैं  सदा हमारे,

अमर जाति क्या मरतीं?


जन्म - जन्म में वर्ण एक ही,

अपना ऊँचा होगा,

नहीं  बनेंगे  बकरी  -  भेड़ें,

एक रंग का चोगा,

अपनी      दावेदारी,

यह तकदीर हमारी,

कौन  देखता  है  परदे  में,

करनी जो छिप धरतीं।


🪴शुभमस्तु !


28.12.2022◆ 8.15 

पतनम मार्तण्डस्य।

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