552/2022
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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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वेला है
सँझबाती की
जलाओ दिए।
पथ भी है
अँधियारा
कहाँ हैं दिए ??
आए थे
अकेले ही
जाना भी अकेला।
चलन है
सनातन ये
कब तक ये मेला!!
जिस कारण
भेजा था
पूर्ण वे किए।
आया था
खाली मैं
जाना भी खाली।
रोकर वे
चुप होंगे
बजाएँ कुछ ताली।।
माने थे
अपने जो
हित उनके जिए।
योनियों का
परिवर्तन
होता ही रहना।
समय की
धारा में
सबको ही बहना।।
विरले हैं
ऐसे कुछ
बसे वे हिये।
बीत गए
युग कितने
चलता मैं रहा।
कर्मों की
तरणी चढ़
धारा में बहा।।
कोशिश थी
मेरी यह
फटे को सीए।
🪴 शुभमस्तु!
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