गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

आदमी यह आज का 🙉 [ नवगीत ]

 531/2022

 

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✍️ शब्दकार©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मात्र  अपना  चाहता  हित,

आदमी यह आज का।


बढ़   रही    संपन्नता    में,

शून्य  मानवता  हुई,

ढपलियाँ  सबकी अलग हैं,

रागिनी बजती  नई,

जगत    है   नक्कारखाना,

मित्र है नर बाज का।


जानता   कोई   नहीं    है,

सँग पड़ौसी भी नहीं,

एक   ही  आवास   वासी ,

में नहीं   चर्चा  कहीं,

दूसरों  का  साथ  क्या  दे ,

काम का ना काज का।


 आदमी  से  आदमी   का,

काज सधता  है यहाँ,

कान  आँखें  बंद कर  वह,

घूमता  सारा   जहाँ,

नित्य   सपने   देखता   है,

विश्व भर  में  राज का।


बृहत    मेले    में   अकेला,

आदमी  बौरा  रहा,

पीपनी    अपनी    बजाता,

मूढ़ है  भौंरा  महा,

घोंसलों   में  बंद    चहका ,

चख रहा रस खाज का।


🪴 15.12.2022◆ 9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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