516/2022
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✍️ शब्दकार ©
💌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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स्थाई पतझड़
लग गया है,
बहार पुनः वसंत की
अब नहीं आएगी!
समाज के दरख़्त
झड़ने लगे हैं,
होते हुए
क्रमशः 'पत्रहीन'।
शब्दकोष में
पत्र के अर्थ
सिकुड़ने लगे हैं,
जब चिट्ठियाँ ही नहीं
तो पत्र क्यों रहेंगे!
अब तो बस
पेड़ों लताओं पर
पत्र हवा में
उड़ते रहेंगे!
पत्रों के विकल्प
एक नहीं
हैं बहुत सारे !
ई-मेल, फेसबुक, व्हाट्सएप,
ट्विटर, मैसेज,
पत्र सूख चुके हैं,
शादी आदि के
कार्डों में
सिमट चुके हैं,
कम्प्यूटर मोबइल
झपट चुके हैं।
गूगल बाबा
शब्दकोष का भी
बड़ा बाबा बना है,
कोने में पड़े
वे धूल खा रहे हैं,
अतीत में जा रहे हैं,
डिजिटाइजेशन के कारनामे
गज़ब ढा रहे हैं!
पता नहीं
हम कहाँ जा रहे हैं!
सारे शब्दकोश
सिकुड़ते जा रहे हैं।
समय की चाल को
भला रोक ही
कौन पाया है,
वही तो
अपने प्रवाह में
हमें यहाँ तक
बहा लाया है,
पत्र तो पत्र
हम सब
बहे जा रहे हैं,
अनवरत रात -दिन,
क्षण प्रति क्षण,
बहता हुआ जाता
देख रहे हैं 'शुभम्'
सृष्टि का कण- कण!
🪴 शुभमस्तु!
09.12.2022◆7.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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