505/2022
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✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सड़कें अधराम्बर में दौड़ें,
घर पाताली नीचे।
दिखता हवा हवाई मानव,
भीतर - भीतर ढीला,
सूख गया आँखों का पानी,
बाहर दिखे पनीला,
सभी प्रदर्शन ढोंगी,
बजती रहती पोंगी,
आतिशबाजी शोर धमाधम,
धन को वृथा उलीचे।
अपना भला सभी को दीखे,
जाय भाड़ में कोई,
भले पड़ौसी सब मर जाएँ,
मिले न उनको छोई,
नाली सड़क हमारे,
जमींदार हम प्यारे,
परेशान हो सारी जनता,
अपने खुलें दरीचे।
गुबरैला हो गया आदमी,
गोबर - गंध सुहाए,
गोबर खाना गोबर पीना,
गोबर - बस्ती भाए,
टर्र - टर्र टर्राता,
बैठ कूप में गाता,
हवा नहीं बाहर की भाती,
आँख कान भी मीचे।
फूली-फलती जहर-किसानी,
जहर बेचकर जीते,
कर्कट की बस्ती में रहते,
जी भर आँसू पीते,
दिखती मात्र कमाई,
बीमारी ने खाई,
कीड़े लगे पर्यावरण में,
मरते हरे बगीचे।
🪴 शुभमस्तु !
01.12.2022◆8.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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