508/2022
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✍️ व्यंग्यकार ©
🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मन तो अंततः मन है। इसको जानने - समझने का न कोई जतन है।कभी यह मन है;तो कभी छटाँक भी नहीं। कभी तोला तो कभी माशा है मन।कभी होता है तो कभी एकदम नहीं होता।कभी किसी पर आ जाता है।तो कभी हट जाता है। और तो औऱ मन खट्टा भी हो जाता है। जब खट्टा होता है ,तो कभी मीठा भी होता ही होगा।कड़ुआ अथवा कसैला भी अवश्य होता होगा। इस मन के मिज़ाज निराले हैं। इसकी अनंत चालें हैं।
सुना है कि मन की चाल सबसे तेज है।पल में यहाँ ,पल भर में अनंत लोकों की सैर करके पुनरागमन कर लेता है यह मन।क्या किसीने मन को चलते या दौड़ते हुए देखा है ! नहीं न ? जब मन दिखलाई ही नहीं देता तो चलते या दौड़ते हुए भला कैसे दिख सकता है? मन तो मन ही है। विचित्र यह मन।आपका भी; मेरा भी; आप या मेरा क्या सबका ही।
मन हारता भी है। मन जीतता भी है।इसके हार जाने से मानव के पैर भी मन- मन भर के हो जाते हैं और चार कदम चलना भी दूभर हो जाता है।जब मन जीत जाए तो इसकी परतीति (विश्वास) से परमात्मा को भी पाना सहज हो जाता है। वाह रे मन ! बहुत ही विचित्र है तू ! आदमी के जीवित रहने के बावजूद मन मर भी जाता है।लेकिन यह आदमी के मरने की तरह हमेशा के लिए नहीं मरता। वह पुर्नजीवित होने की अद्भुत क्षमता से युक्त भी होता है।
कोई कहता है कि आज मेरा मन नहीं है। इसका मतलब ऐसा भी होता है कि कभी यह नहीं भी होता। मन कोई भौतिक वस्तु नहीं लगता। यह परमात्मा की तरह मौन,अदृष्ट होकर भी सबका दृष्टा है।यह ऊँची से ऊँची कल्पनाओं का सागर है। कोई कवि हो या वैज्ञानिक ; आम हो या ख़ास; नर हो या नारी, सन्यासी हो या ब्रह्मचारी; व्यापारी हो या व्यभिचारी : न जाने कितने रूपाकार में होता है। संभवतः यह पानी की तरह है। जिस पात्र में डालो ,वैसा ही रूप धारण कर लेता है। लोटे में डालो तो लोटे जैसा और थाली में डालो तो थाली जैसा।डाकू के देह -पात्र में डाकू- मन,साधु के देह -पात्र में साधु- मन। नारी के देह -पात्र में नारी - मन और पुरुष के देह - पात्र में परुषता वाची पुरुष - मन।बालक में बाल - मन। पागल में पागल - मन।मन किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसकी पहुँच कहाँ नहीं है?जहाँ सूरज की किरणें भी न पहुँचें वहाँ कवि - मन की पहुँच सहज ही हो जाती है।विज्ञानी की कल्पना लोक की दौड़ का तो कोई भी ठिकाना नहीं !
भला ऐसा भी कोई है ,जो मन को मान्यता नहीं देता। मन की सब मानते हैं।लोगों को यह कहते हुए भी सुना है कि मन और आत्मा का संघर्ष चलता रहता है।जब कोई मानुष कोई गलत काम करने जाता है तो उसका मन कहता है कर ले ,कर ले, कौन देख रहा है? उधर आत्मा कहती है ;नहीं । इसे मत करना । यह गलत है। पाप है। अधर्म है। अन्याय है। अनाचार है । मत कर। अब मन औऱ आत्मा की इस लड़ाई में जिसकी जीत होती है ;वही काम आकार ग्रहण कर रूप धारण कर लेता है। उन क्षणों में कर्ता सोचता है कि एक मन कहता है कि कर ,कौन देखता है ? और दूसरा मन कहता है कि नहीं। यह ग़लत है। यह दूसरा मन ही आत्मा है।जिसने आत्मा की सुनी वही जीत गया और मन की मानने वाला ...? उसका तो मन ही जाने कि क्या होगा? किसी सिनेमा के गीत में नायक यह गीत गाता हुआ सुना गया है: "मन माने की बात है ,जब जो लग जाए प्यारा।"
मन आता भी है औऱ चला भी जाता है, जा सकता है।गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं:"ऊधौ मन न भए दस बीस।एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग को अवराधै ईश।" एक मन में एक अधिक को स्थान नहीं मिल सकता।आज के युग में मिलता हो तो वह अलग बात है।तू नहीं तो कोई और सही, वह भी नहीं तो कोई और सही।कितनों से मन लगाया ,कितनों से हटाया।आज के युग में इसकी संख्या अनन्त है। जब मन माने तब वसंत है।अन्यथा आदमी संतों का संत है।व्यंग्यकार के इस मन माने वक्तव्य का अंत है।अंत में मन को मेरे मन से नमन है,विनम्र नमन है।नमन में भी मन तो है ,पर आदि में ये 'न' क्यों ? इसलिए मेरा मेरे मन को मन है ,मन, है मन है।यह एक नन्हा - सा कवि मन है।जो अपने मन से प्रमन है।
🪴 शुभमस्तु!
04.12.2022◆9.00 पतनम मार्तण्डस्य।
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