530/2022
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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्
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मूँगफली तिलकुट्टी महकी,
गज़क रेवड़ी आई।
थर-थर पूस काँपता ओढ़े,
दूध छाछ की चादर,
धुंध कोहरा की छाई है,
सूरज भाता सादर,
पादप मौन खड़े हैं,
छोटे या कि बड़े हैं,
धीरे - धीरे फैल रही है,
धूप गुनगुनी छाई।
कड़री, चना ,हरे बथुआ के,
स्वाद सभी को भाए,
ढूँढ़ - ढूँढ़ कर ले आते हैं,
मिलें न तो तरसाए,
मक्का की सद रोटी,
स्वाद लगी है मोटी,
ज्वार बाजरा खाते हैं जन,
जो जिसके मनभाई।
आलू भुने स्वाद के लगते,
शकरकंद भुनवाए,
अगियाने पर गप्प लड़ाते,
हाथ पैर गरमाए,
खाते कुछ गुड़धानी,
लंबी कहें कहानी,
ताप रहे हैं बैठ छान में,
बाबा दादी ताई।
भोर भई तमचूर बोलता,
कुक्कड़ कूं की बोली,
जागो - जागो बाहर आओ,
चोंच बतख ने खोली,
गौरैया चिचियाई,
पिड़कुलिया भी आई,
पिल्लों के सँग खरहे खेलें,
पूसी भी मिमियाई।
बस्ते उठा पीठ पर लादे,
बालक घर से धाये,
टन - टन घण्टी बजे जोर से,
दौड़े कुछ अनखाये,
माँ बोली कुछ खा ले,
धीरज धर ए लाले!
नहीं देर तक सोया कर तू,
झूठी रिस भर आई।
🪴शुभमस्तु !
14.12.2022◆7.15
पतनम मार्तण्डस्य।
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[1:19 pm, 15/12/2022] DR BHAGWAT SWAROOP: 531/2022
🙉 आदमी यह आज का 🙉
[ नवगीत ]
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✍️ शब्दकार©
🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मात्र अपना चाहता हित,
आदमी यह आज का।
बढ़ रही संपन्नता में,
शून्य मानवता हुई,
ढपलियाँ सबकी अलग हैं,
रागिनी बजती नई,
जगत है नक्कारखाना,
मित्र है नर बाज का।
जानता कोई नहीं है,
सँग पड़ौसी भी नहीं,
एक ही आवास वासी ,
में नहीं चर्चा कहीं,
दूसरों का साथ क्या दे ,
काम का ना काज का।
आदमी से आदमी का,
काज सधता है यहाँ,
कान आँखें बंद कर वह,
घूमता सारा जहाँ,
नित्य सपने देखता है,
विश्व भर में राज का।
बृहत मेले में अकेला,
आदमी बौरा रहा,
पीपनी अपनी बजाता,
मूढ़ है भौंरा महा,
घोंसलों में बंद चहका ,
चख रहा रस खाज का।
🪴 15.12.2022◆ 9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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