गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

गोड़ सिमटकर अकड़े 🌞 [ नवगीत ]

 506/2022


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✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पीठ रजइया  की बर्फ़ीली,

गोड़ सिमटकर अकड़े।


दिवला की बाती शरमाए,

ज्योति खड़ी है मौन,

पाहुन आए  अँधियारे में,

घर   पहुँचाए  कौन,

 पड़े   गाँव  में  सोता,

 दूधमुँहाँ  शिशु  रोता,

काँपे सद्य प्रसूता थर - थर,

शिशु बाँहों में जकड़े।


अगियाने  के   उपले  ठंडे,

उठ - उठ जाते लोग,

बड़ी  कहानी  रही  अधूरी,

बतकथनी  का  रोग,

जब लों हूँ - हाँ होती,

बिखरे  रहते   मोती,

मिलजुल कर ले आते साथी,

ईंधन, तूरी ,लकड़े।


सूरज   दादा  ओढ़    पड़े  हैं,

दूध झकाझक  शॉल,

कभी-कभी चमकाते मुँह को,

बदलें रँग - ढँग डॉल,

मोती ओस बनी है,

चादर सेत  तनी  है,

अरहर ,आलू ,  गेहूँ , सरसों,

कुहरा -चादर पकड़े।


 भूरी  भैंस   रात  भर ठिठुरी,

चला बिफरती लात,

दोहनी नहीं   पास   आने  दे,

करे  न कोई बात,

दूध    नहीं    है  देना,

तगड़ा ठनगन है ना!

गरम   रजाई   कम्बल  माँगे,

काज पड़े तब बिगड़े।


🪴 शुभमस्तु!


01.12.2022◆5.00

पतनम मार्तण्डस्य।


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