५५४/२०२२
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✍️ लेखक ©
📚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अतीत की पुस्तक के पृष्ठों को उलटने - पलटने का भी अपना कोई महत्त्व किसी के लिए हो या न हो;किंतु मेरे लिए अपने अतीत की पुस्तक का हर पृष्ठ अमूल्य है।उन्हीं असंख्य पृष्ठों में से एक पृष्ठ को पलटकर आपको प्रत्यक्ष कर रहा हूँ।जीवन के इकहत्तर वर्ष पूर्ण करते हुए सबकी तरह मैंने भी अनेक उतार -चढ़ाव औऱ उत्थान- पतन देखे हैं। ग्यारह वर्ष की आयु में पता नहीं वह कौन- सा क्षण औऱ दिन रहा होगा, जब माँ सरस्वती ने मेरी जिह्वा पर विराजमान होकर मेरे हाथ में लेखनी थमा दी और मैं व्यक्ति ,समाज,अड़ौस- पड़ौस, प्रकृति ,देश और दुनिया पर काव्य रचनाएँ करने लगा।
अपनी रचनाओं की तरह ही प्रत्येक वस्तु को विधिवत सहेज कर रखने की मेरी प्रकृति जन्मजात ही है। मुझे अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में अव्यवस्था ,बिखराव और विसंगति कभी भी पसंद नहीं आई।यही कारण है कि मेरे बचपन से लेकर अब तक लिखी गई हजारों रचनाएँ आज भी सुरक्षित हैं।यद्यपि अभी तक मेरी सोलह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं औऱ सत्रहवीं प्रकाशनाधीन है।अभी भी 25-30 पुस्तकों की सामग्री प्रकाशनार्थ प्रतीक्षारत है। काव्य तो एक सरिता है ,जिसका प्रवाह हृदय गिरि से निरतंर होता है,निरंतर होना है।
मेरी सबसे पहली रचना प्रकृति सौंदर्य को लेकर 10-12पंक्ति की एक लघु रचना ही है। बीज तो बीज है, सूक्ष्म ही तो होगा। उसके बाद समय,दिन,रात और मार्ग! पता नहीं कितना जल बह गया गंगा में ; यह तो मेरा सागर ही जानता होगा।मेरे माता-पिता,बाबा-दादी और चाचा भी इस तथ्य से सुपरिचित थे कि मैं कविताएँ लिखता हूँ। किंतु एक अव्यक्त सोच औऱ संकोच ने कभी मुझे अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाने का अवसर प्रदान नहीं किया।यद्यपि मेरे पिताजी मेरी डायरियों से कभी कोई रचना पढ़ लेते रहे हों, यह अलग बात है।हाँ, इतना अवश्य है कि अपने गाँव की अपनी ही चौपाल पर स्थित नीम के नीचे चबूतरे पर बैठकर अपनी रचनाएँ अपने अन्य परिजनों और मित्रों को अवश्य सुनाया करता था।
स्नातक कक्षाओं तक विज्ञान का विद्यार्थी रहने के बावजूद काव्य - लेखन कभी नहीं रुका।ये अलग बात है कि कभी मैदानी नदी की तरह तो कभी पहाड़ी झरनों की तरह काव्य - प्रपातों का झरना बहता ही रहा। छोटी कक्षाओं में तो मित्र गण काव्य सुनने में इतनी रुचि नहीं लेते थे किंतु जब आगरा कालेज, आगरा में एम.ए. हिंदी में प्रवेश किया तो सभी सहपाठी बड़ी रुचि पूर्वक मेरी रचनाएँ सुनते थे।उस समय एम.ए. पूर्वार्द्ध में हम कुल आठ छात्र औऱ लगभग चालीस छात्राएं थीं। जिनमें कुछ छात्राएं बड़ी रुचि पूर्वक मेरी कविताएं सुनती थीं। किसी का नाम नहीं लिखूँगा,किन्तु उन की छवि आज भी जस की तस मेरे स्मृतिकोष में सुरक्षित है।मेरी एक सहपाठिन ने तो एक दिन अत्यंत प्रभावित होकर मुझे अपने घर पर आकर पढ़ाने का आमंत्रण ही दे डाला कि मैं उसके घर पर जाकर उसे पढ़ा दिया करूँ।मैं अपनी कक्षा में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों में गिना जाता था। मैंने उस कुमारी क..... से यही कहा कि ऐसा तो सम्भव नहीं हो पाएगा, हाँ, यदि कालेज में ही वह कुछ पूँछना चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।क्योंकि मुझे प्रतिदिन पंद्रह किलोमीटर की साइकिल यात्रा पचपन मिनट में पूरी करने के बाद कालेज आना होता है।पढ़ाने के बाद रात्रि में लौटने में मुझे बहुत असुविधा होगी। इस पर उसने मुझे अपनी कोठी में ही रहने का प्रस्ताव दे डाला ,जिसे मैंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पता नहीं समय की धारा मुझे कहाँ ले जाती! और मैं अपने निर्धारित मार्ग पर चलता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा हूँ।
आगरा कालेज ,आगरा में 1974 में विज्ञान स्नातक विद्यार्थी को एम.ए हिंदी में प्रवेश पाने की योग्यता का प्रमाण पत्र मेरे काव्य लेखन की ही महिमा है ,अन्यथा पूज्य गुरुवर हिंदी- विभागाध्यक्ष डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र जी ने तो प्रवेश के लिए स्पष्ट मना ही कर दिया था। उसी वर्ष 23 सितंबर की रात को देखे गए एक स्वप्न ने मुझे एक खण्डकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया और प्रातःकाल जागने के बाद खण्डकाव्य 'ताजमहल' पर लेखनी चलने लगी तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया।मात्र एक रचना लिखने के बाद मानों कविता का झरना ही प्रस्फुटित हो हो गया। अंततः वही खण्डकाव्य 2008 में नई दिल्ली से प्रकाशित भी हुआ। महाकाव्य 'तपस्वी बुद्ध' तो उस समय वर्ष 1970में ही पूर्ण हो गया था ;जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था। सौभाग्य से यह भी वर्ष 2018 में साहित्यपीडिया प्रकाशन , नोएडा से प्रकाशित हुआ। पूजनीया माँ और पूज्य पिताजी के दिवंगत होने पर एक - एक सप्ताह में शोक के उन क्षणों में खण्डकाव्य 'बोलते आँसू' और 'फिर बहे आँसू' लिख पाना मुझे आज भी आश्चर्य से कम प्रतीत नहीं होता।
प्रत्येक रचना और कृति का अपना अतीत होता है। अलग-अलग प्रेरणा भी होती है। कवि नहीं जानता कि किस कविता का जन्म किस समय और कैसे हो जाता है।विद्यार्थी - जीवन में रास्ते में यकायक किसी भाव का उद्भव होता औऱ मैं साइकिल से नीचे उतरकर रचना की उस पंक्ति को जेब में रखे हुए कागज पर लिख लेता और घर जाकर रचना पूरी करता। कभी - कभी रात में दो बजे उठकर भी काव्य सृजन हुआ है ,होता रहा है।आज भी होता है।निश्चय ही काव्य सृजन का अद्भुत लोक है।काव्य -सृजन के क्षण उस प्रसव वेदना की तरह होते हैं ,जैसे वह कोई आपन्नसत्वा नारी हो। जब तक रचना पूर्ण नहीं होती;कवि को शांति नहीं मिल पाती। मुझ अकिंचन पर माँ वीणावादिनी की इस महती कृपा वृष्टि के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्द नहीं हैं,कि कुछ कह सकूँ। बस यही कामना है कि जन्म जन्मांतर तक उनका कृपा हस्त इस भगवत के शीश पर सदैव बना रहे।
🪴 शुभमस्तु!
30.12.2022◆8.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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