529/2022
[अंत,अनंत,आकाश,अवनि ,अचल]
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✍️ शब्दकार ©
🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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🧡 सब में एक 🧡
आदि अंत के मध्य में,सकल सृष्टि साकार।
जो आया जाना उसे, होता है अनिवार।।
छिपा अंत में जीव का,कर्म- भोग परिणाम।
सदुपयोग पल का करें,जीवन बने ललाम।।
ईश- सृष्टि में प्रकृति का,है अनंत विस्तार।
सब उससे अनभिज्ञ हैं,भंग न होती धार।।
अक्षय अमर अनंत है,प्रभु की लीला मीत।
कर प्रयास पाया नहीं, सका न कोई जीत।।
पंच तत्त्व विस्तार में,व्यापकतम आकाश।
सबका आलय है वही,सदा नित्य अविनाश।
मम उर के आकाश की,सीमा है अज्ञात।
शब्द भाव गुंजारते,बन कविता दिन-रात।।
धुरी अवनि चलती रहे,प्रतिपल प्रति दिनरात
सूर्योदय शुभ काल में,देती नवल प्रभात।।
अवनिअंक में धारती, जन्म अवधि सह मोद
कष्ट न हो तृण मात्र भी,संग सुशीतल ओद।।
चंचल मन करना नहीं,ज्यों पीपल का पात।
अचल वचन हिमवंत-सा,नर को सदा सुहात
मेरे उर शुभ कामना,अचल रहे अहिवात।
सुता सुखी जीवन जिएँ,आजीवन दिन रात।
🧡 एक में सब 🧡
प्रभु की प्रभा अनंत है,
अंत रहित आकाश।
अवनि सचल है अचल गिरि,
अमर मनुज की आश।।
🪴 शुभमस्तु !
14.12.2022◆7.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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