519/2022
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✍️ व्यंग्यकार ©
🚩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मानव को खूँटा विरासत में मिला हुआ है। कोई भी आदमी साधारण हो अथवा असाधारण,अति विशिष्ट हो या सामान्य ;खूँटे से बँधना उसका संस्कार है।जैसे जन्म लेते ही जीव माँ के स्तन ढूँढने लगता है ,ठीक वैसे ही मनुष्य का बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगता है; अपने को ज्यादा समझदार होने का दम भरने लगता है;वह मजबूत खूँटे /खूँटों की तलाश में व्यस्त हो जाता है।वह बस पकड़े रहकर ही अधिक संतुष्ट और प्रसन्न अनुभव करता है। पकड़े रहना उसकी नियति है।इसीलिए तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी का सम्मान मिला है।वह चाहे अति उन्नत हो अथवा पतनोन्मुख; खूँटा उसकी अनिवार्यता है।जैसे मैदान में खूँटे से बँधी हुई भैंस अथवा बकरी उतनी दूरी तक ही घास चरने के लिए विचरण कर पाती है, जितनी लंबी उसकी रस्सी होती है।रस्सी तोड़कर या खूँटा छोड़कर पलायन करना उसका संस्कार नहीं है। यह खूँटा ही उसका पालक है,रक्षक है,आश्रय है,सर्वस्व है।
आपकी यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि ये खूँटे किस तरह के हैं, जिनसे बंधकर हर व्यक्ति अपने को धन्य - धन्य समझने लगता है। इन खूँटों के प्रकार और संख्या अनन्त है।कुछ विशेष खूँटों की चर्चा करना समीचीन होगा।
प्रायः अधिकांश जन स्व- जाति के खूँटे से बंधकर अपने को अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं।नेता, अधिकारी, कर्मचारी, आम आदमी;यहाँ तक कि कुछ साधु- संत भी जाति के खूँटे से बँधे हुए रहकर मस्त हैं। समाज के मठाधीश जन स्वजाति के कथावाचक या कपड़े रँगे हुए विद्वान को खोज लाते हैं। ज्ञान ध्यान का क्षेत्र भी जाति के खूँटे से नहीं बचा। यह सब संस्कार की बात है। नेता जाति के आधार पर मत खोजते हैं,जातिगत क्षेत्र से ही टिकट लेकर चुनाव के मैदान में उतर पड़ते हैं।नेताओं के लिए जाति एक संजीवनी है।जहाँ कोई दाँव नहीं चलता ,वहाँ जाति का हथकंडा काम आता है। जब मनुष्य की समस्त योग्यताओं पर पानी फिर जाता है ,वहाँ उसे जाति से ही सहारा मिलता है।वही उसकी डूबती हुई नैया पार लगाने के लिए तिनका नहीं एक विशाल शहतीर का काम देती है। खेल में लुटा -पिटा बालक अंततः माँ के आँचल में में लुक -छिप कर शांति और तोष प्राप्त करता है,ठीक वैसे ही नेता या उसी प्रकार के मनुष्य को जाति का दूध पीने से तुष्टि की पुष्टि हो जाती है।
अधिकारी का झुकाव भी अपनी जाति वाले की ओर कुछ अधिक ही होता है। ऐसा नहीं है कि कवि विद्वान नहीं होते। वहाँ भी अंदरूनी जातिगत गिरोहों का बोलबाला है।जाति एक ऐसा गरम मसाला है ,जिसे जहां भी चाहो चला सकते हो।स्कूल - कालेजों में शिक्षक भी इस संस्कार से मुक्त नहीं हैं।वे अपने विद्यार्थियों में भी वही कॉमन तत्त्व तलाशते हुए देखे जा सकते हैं। सहज झुकाव का यह बिंदु मानव समाज में कहाँ नहीं है,यह जानना कठिन नहीं तो दुर्लभ भी नहीं है।
पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, स्वामी के लिए सेवक ,सेवक के लिए स्वामी, नौकरी , व्यवसाय ,समाज के अनेक रक्त सम्बंध, रक्त से इतर सम्बन्ध ,धर्म,मजहब, सम्प्रदाय,राजनीति, कूटनीति, आदि हजारों लाखों खूँटों की भरमार में बंधे हुए जन कहीं भी स्वाधीन नहीं हैं। यहाँ तक कि उसका चिंतन- मनन, अध्ययन,स्वाध्याय, शिक्षा, खेल , सब कुछ खूँटाबद्ध है। मानव का यह पालतूपन ही उसके खूँटा- बंधन का कारण है। किसी न किसी का पालित बनकर रहना ही उसे रास आता है।वह दास भी है तो अपने मन का नहीं। परिष्कृत भाषा शैली में इसे भक्त कह दिया जाता है। कोई नेता भक्त है तो कोई दल भक्त है।वह कहीं न कहीं अनुरक्त है।यह अनुरक्ति ही उसका खूँटा है। उसकी परिधि है। उसकी सीमा है। बस उसके खूँटे तक ही उसका बीमा है।
मानव का 'खूँटात्त्व' एक ऐसा अनिवार्य तत्त्व है, जो उसे असीम से ससीम बनाता है। उसकी अपनी 'खूँटाई ' से कभी भी विदाई होती है और न ही जुदाई। उजड्ड भैंस की तरह कुछ खूँटा- उखाड़ जन पगहा तोड़कर किसी दूसरे खूँटे से आलिंगनबद्ध होते हुए भी देखे जाते हैं।राजनेताओं के लिए यह एक सामान्य-सी बात है। वहाँ उनका खूँटा ऊँची कुर्सी है, जहाँ भी वह मिले; बस उसी खूँटे को गले लगा लिया। परिवर्तनशील खूँटे व्यक्ति विशेष के चरित्र की चंचलता के पुष्ट प्रमाण हैं।कौन कब अपना वर्तमान खूँटा तोड़ बैठेगा ,कुछ भी नहीं पता।
मानव का यह पालतूपन उसे गाय, भैंस,बकरी,गधा,घोड़ा,भेड़ आदि की श्रेणी में स्थापित करता है। वह शेर, चीता, भालू, लकड़बघ्घा,तेंदुआ आदि स्वतंत्र जीवों की श्रेणी के समकक्ष उन्मुक्त प्राणी कदापि नहीं है।ये प्राणी खूँटे से नहीं बाँधे जाते ,औऱ न बाँधे ही जा सकते हैं।इनका दूध केवल औऱ केवल उन्हीं की संतति के लिए उत्पादित होता है।गाय - भैंस के दूध की तरह मानव के द्वारा छीन नहीं लिया जाता।जिस प्रकार मानव किसी अन्य प्राणी का दोहन करता है ,ठीक वैसे ही मानव तो स्वयं मानव का दोहन करने से नहीं चूकता।निर्जीव और सजीव विविध प्रकार के खूँटों से बद्ध यह मानव आजीवन खूँटामय रहकर ही जीवन बिता देता है। खूँटों के प्रति पराश्रयता उसकी प्रतिबद्धता बनकर उसे समस्त जीव - जगत से भिन्न प्राणी बना देती है।वह उसी के प्रति समर्पित औऱ संतुष्ट है।अपनी सुदृढ़ता का दंभ भरने वाला यह मानव कितना परिपोषी औऱ परिजीवी है, इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है।
🪴 शुभमस्तु !
10.12.2022◆ 11.30 आ.मा.
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