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✍️ शब्दकार ©
🏮 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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गुल्लक है धनवान हमारी।
लाल -लाल माटी की प्यारी।।
बाहर - भीतर नोट भरे हैं।
नीले , पीले , लाल , हरे हैं।।
सिक्कों से खन-खन बजती है
बचे हुए धन से ठुसती है।।
गुल्लक घर की बैंक हमारी।
होती जाती है नित भारी।।
सिक्के एक, पाँच या दस के।
घेर पड़े हैं बाहर उसके।।
जब भी आवश्यकता होती।
खुशियों से मुखअपना धोती।
गुल्लक एक भरे जब मेरी।
ले लूँगा मैं फिर बहुतेरी।।
मेरी अपनी बैंक निराली।
'शुभम'बजाएँ जी भर ताली।।
🪴 शुभमस्तु !
०८.०१.२०२२◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।
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