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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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श्रम-सीकर के नीर का,कौन दे सका मोल।
कितना बह जाता धरनि, कौन रहा है तोल।।
पाहन काटे श्रमिक ने,लगा रहा दिन - रात।
सुखद नहीं पल एक भी,की न प्रिया से बात।
आँसू श्रमकण में कभी,किया न उसने भेद।
तन से बहता ही रहा, रह-रह कर बहु स्वेद।।
श्रमकण गंगा धार है, पावन करती गेह।
वह वसंत पावस शरद, वही सावनी मेह।।
श्रम में ही संतोष है,श्रम में स्वर्ग निवास।
श्रम ही जीवन ढाल है,श्रम ही है जन आस।
सड़कें विद्यालय भवन,सब श्रमिकों की देन
श्रम से चूड़ी हार सब, मोटर गाड़ी वेन।।
श्रम कर सरिता बढ़ रही,नित सागर की ओर
पर्वत से झर-झर बहे,कमी न रखती कोर।
सूरज का श्रम देखकर, क्यों होते हैरान।
श्रम का एक प्रतीक है,करता ज्योति प्रदान
पंचतत्त्व श्रमरत रहें,अविरत कर्म प्रधान।
धरती अंबर अग्नि जल, पावन पवन महान।
रखे हाथ पर हाथ जो,बैठा है नर मूढ़।
तन है उसका मृत्तिका,मन भी उसका कूढ़।।
'शुभं'करे किस शब्द से,श्रम का अब गुणगान
करता है निज हृदय से,कर श्रम सीकर दान।
🪴 शुभमस्तु !
०४.०१.२०२२◆ १.५०
पतनम मार्तण्डस्य।
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