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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सघन कोहरा छागया , दिशा-दिशा में शीत।
छिपे कीर निज नीड़ में, जीव-जंतु भयभीत।
चादर ओढ़े दूध - सी, छिपे हुए हैं भानु,
निष्प्रभ चंदा- चाँदनी, नहीं गा रहे गीत।
पल्लव-पल्लव ओस के, चमके मुक्ता चारु,
जेठ पराजित हो गया,पूस-माघ की जीत।
छुआ न जाए देह को,पोर-पोर हिम सेत,
कैसे हो अभिसार अब,रूठ गया है मीत।
अवगुंठन अपना हटा,नहिं चाहती नारि,
आलिंगन कैसे करें, गए दिवस वे बीत।
पाटल - दल भीगे हुए,स्वागत को तैयार,
उत्कंठा ऐसी जगी, भाव नहीं विपरीत।
'शुभम' कामना आग - सी,दहकाती है देह,
झरते उर नव स्रोत के,निर्झर नित नवनीत।।
🪴 शुभमस्तु !
२१.०१.२०२२◆११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।
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