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✍️ शब्दकार ©
⛵ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
साँचे में ढल आदमी, हुआ साँच से दूर।
जैसे मेढक कूप का,उछले नित भरपूर।।
उछले नित भरपूर,वही है दुनिया सारी।
सजी चार ही हाथ, कूप में चारदिवारी।।
'शुभम' कूदता मूढ़,भरे नर नित्य कुलाँचे।
समझ स्वयं को ईश, बना माटी के साँचे।।
-2-
रंगा जी ने रँग लिए, साँचे कितने आज।
लाल,हरे , पीले चुने, बनने को सरताज।।
बनने को सरताज ,अलग पहचान दिखाए।
गिरगिट जैसे रंग, देह पर बदले पाए।।
'शुभम' कहाँ है साँच, नहाते गदहे गंगा।
चमके भाल त्रिपुंड, पैर से सिर तक रंगा।।
-3-
मानवता के नाम का,गढ़ा न साँचा एक।
पक्षपात की आग में, झोंकी करनी नेक।।
झोंकी करनी नेक, वाद की भट्टी जलती।
शेष नहीं है न्याय,मनुजता निज कर मलती।
'शुभम' झपट्टामार, सदा से है दानवता।
साँचों का संसार ,मर रही नित मानवता।।
-4-
अपने - अपने मेख से, बाँध मेखला एक।
चमकाता निज नाम को,नहीं कर्म की टेक।।
नहीं कर्म की टेक,बदलता सिर की टोपी।
दिखा धर्म की आड़,बाड़ उपवन में रोपी।।
'शुभम' झूठ के गान,दिखाते स्वर्णिम सपने।
कुर्सी से यश मान,जाति के सब जन अपने।
-5-
माटी साँचों की नहीं, होती अति मजबूत।
सीमा भी उसकी कभी,होती नहीं अकूत।।
होती नहीं अकूत, सोच को रोक लगाती।
स्वच्छ नहींआकाश,घुटन नित बढ़ती जाती।
'शुभम' जानता साँच, धूल धरती की चाटी।
सीमाओं को त्याग, फाँक मानव की माटी।।
*मेख =खूँटा।
*मेखला= शृंखला,जंजीर।
🪴 शुभमस्तु !
२३.०१.२०२२◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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