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✍️ शब्दकार ©
🚉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मुंडी मुड़ा के
पगहा तुड़ा के
खूँटा बदल दिया,
पिछले खूँटे में
हजार दोष देखे,
अब तक तो झेले
किए भी गए अनदेखे,
अब देखे नहीं जाते,
तो भला वे
पगहा क्यों नहीं तुड़ाते!
लड़ामनी
लगने लगी थी खाली,
बहुत ही देखी - भाली,
घुनने लगा खूँटा,
मालिक लगा
निपट झूठा ,
अस्तित्व उनका लूटा,
रातों- रात में
उन्होंने बदल डाला
अपना खूँटा।
जब मिले न
चारा - पानी,
लगने लग गया
सब कुछ बेमानी,
बढ़ने लगी खींचातानी,
करने की कुछ
हमने ठानी,
बदले रुख हवा के,
निकल लिए हम
अपना सिर झुका के,
दो चार कमी गिना के,
भ्रमजाल पूरा टूटा।
अवसर जो अपना चूका,
वह मूर्ख है समूचा,
जा पाएगा कभी न ऊँचा,
चुपचाप ही निकलने में
अपनी भलाई है,
इसमें न कोई लोचा,
हुई भोर उधर पहुँचा,
पकड़ा नया खूँटा।
जड़ता उचित नहीं है,
सड़ता है
रुका जो पानी,
आवश्यक है बदलाव भी,
बहते रहो, बढ़ते रहो,
पीते रहो
नौ - नौ घाट का पानी,
यही तो है जिंदगानी,
बेपेंदी का लोटा।
कपड़े की तरह,
पुराना तजो,
नए को भजो,
मजे ही मजे,
फिर क्यों न
पिछला खूँटा तजो?
पगहे मजबूत मत चुनो,
जब चाहो तब
नया बदल सको!
फंदा न बन जाए पगहा!
इसीलिये तो मुक्त है
'शुभम' गदहा!
हा ! हा !! हा !!!
🪴 शुभमस्तु !
२६.०१.२०२२◆४.०० पतनम मार्तण्डस्य।
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