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✍️ शब्दकार ©
🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपने गुरु की 'पूँछ'जो,सुघड़ नाक के बाल।
नित मूँछें ऊँची करें, करके ऊँचा भाल।।
गुरु की महिमा शिष्य से,बढ़ा शिष्यगण भीड़
उत्तम होता गुरु वही,चमके तन की खाल।
धर्म, सियासत में बढ़े,बड़े-बड़े पटु शिष्य,
खेतों में साहित्य के,कागा बने मराल।
कविता यों उगने लगी, जैसे खरपतवार,
नाम रखा कविवर शुभम, ठोंक रहे हैं ताल।
सौ चेले आगे चलें, पीछे खड़े हजार,
वाह!वाह!ध्वनि गूँजती,बदली गुरु की चाल
कवि-सम्मेलन-मंच पर,औरों को कर हूट,
गुरु - ग्रीवा को हार से,करते माला - माल।
जैसे डाकू चोर के ,बनते बड़े गिरोह,
कवि - गिरोह बनने लगे,करते मंच धमाल।
कालिदास तुलसी सभी,होते कवि यदि आज
सिर अपने नित पीटते,बैठ इम्लिका डाल।
ताली थाली लोलुपी, हुल्लड़बाज अनंत,
हा-हा ही- ही मंच पर,जोरों की करताल।
क्लिष्ट काव्य के प्रेत भी,मिलते हैं दो - चार,
कोई समझे या नहीं,चलें हंस की चाल।
कवि गिरोह से जो बचे, भाग्यवान वह मीत,
'शुभं'अकेला जो चला,फँसता क्यों वह जाल
🪴शुभमस्तु !
२९.०१.२०२२◆९.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।
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