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✍️ शब्दकार ©
🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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घोड़े का कुल वंश हमारा।
फिर भी कहे गधा जग सारा।
रंग- रूप में घोड़े जैसा।
फिर भी मान न पाता वैसा।
जाकर घूरे पर भी चरता।
अपना उदर घास से भरता।।
सूखी, हरी घास जो पाऊँ।
खाकर अपनी भूख पुराऊँ।।
जब अपनी मस्ती में आता।
ढेंचू - ढेंचू स्वर में गाता।।
सदा विनत मुद्रा में रहता।
दार्शनिकों -सा भाव उभरता।
बहुत निठुर है मालिक मेरा।
लादे भार पीठ बहुतेरा।।
फिर भी नहीं,नहीं मैं करता।
मालिक के डंडे से डरता।।
मंद बुद्धि के जो नर होते।
मानव उनको कहते खोते।।
जो गर्दभ - पदवी के धारी।
गधा -योनि के नर अवतारी।।
सीधे - साधे भोले - भाले।
कहलाते वे गधे निराले।।
तोष-शांति का मैं हूँ वाहक।
खाता फिर भी चाबुक घातक।
मालिक की घरनी का गुस्सा।
पड़े पीठ पिटना, हो फुस्सा।।
बाहर जैसा भीतर वैसा।
चाहे कोई कह ले कैसा।।
मुझको छल-प्रपंच कब आता!
नहीं किसी का पथ भटकाता।
लोक - कहावत बनी हमारी।
'शुभम' गधे की करते ख्वारी।
🪴 शुभमस्तु!
११.०१.२०२२◆३.००
पतनम मार्तण्डस्य।
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