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✍️ शब्दकार ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सबके हित का भाव हो,कहलाता साहित्य।
लेखन के आकाश में,चमके बन आदित्य।।
शब्द-अर्थ में व्यक्त हो,कविता का हर भाव।
जैसे तरती धार में, बनी काष्ठ की नाव।।
जनहित में साहित्य के,लगे हुए हैं भाव।
ज्यों पत्नी निज कांत को दिखलाए निजहाव
कविता हो या लेख हो,उसका अमर महत्त्व।
शब्दकार यह जानते, जन हितकारी तत्त्व।।
अमर वही साहित्य है,जिसके भाव महान।
मानव मन को चूमते,बढ़ता कवि का मान।।
रचना ऐसी चाहिए, खिलें सुमन के भाव।
बिखरे विरल सुगंध ही,भरें उरों के घाव।।
कटुता से साहित्य का,नहीं लेश सम्बंध।
सदगंधों का वास हो,न हो सूक्ष्म दुर्गंध।।
दोहा,कुंडलिया लिखें,लिखें सरस शुभ गीत।
रोला, बरवै, गीतिका ,व्यंग्य लेख हे मीत!!
मतमंगे साहित्य का,नहीं तनिक भी मोल।
सड़क छाप जो लिख रहे,होता उनमें झोल।।
कवि को कविता रच रही,देती 'शुभं'कवित्त्व
मानवता की लिपि वही,वही मनुज का सत्त्व
माँ वाणी की सत कृपा, देती कवि को देन।
रचता वह साहित्य को,शब्द अर्थ की सेन।।
🪴 शुभमस्तु !
२०.०१.२०२२◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।
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