■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ व्यंग्यकार ©
🐏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
कौन नहीं जानता की भेड़ की ऊन बड़े काम की चीज है ! आदमी स्वार्थवश उसकी देह की रक्षक और सुरक्षा वरण को भी उसके पास नहीं रहने देता। उसके ऊनी वस्त्र,कोट ,पेंट, स्वेटर,शाल , कमीज, इस्टॉल, चादर और न जाने क्या- क्या बनाकर उसका कायाकल्प ही कर देता है।
ऊन के साथ-साथ भेड़ एक और काम के लिए विशेष रूप से जानी- पहचानी जाती है ,वह है उसका भोलापन औऱ चाल - आचरण।वह इतनी सरल चित्त ,परिजीवी, मत्यान्धा और 'पर पद चिह्नानुगामी' होती है,कि उसकी जितनी सराहना की जाए ,कम ही है।इसे तथ्य को यदि कम से कम शब्दों में व्यक्त किया जाए तो इसे 'भेड़ाचार' कह सकते हैं। आमतौर से इसे लोग भेड़ चाल कहते हुए देखे जाते हैं। उक्त 'भेड़ाचार' भेड़ों के पास जितना भी हो ,किंतु मानव जाति का विशेष प्रेरक, शिक्षक और प्रतीक है। दूसरे शब्दों में वह मानव की गुरु पद की पदवी को प्राप्त कर चुकी एक विशेष दर्जा प्राप्त जिंस है।
इस प्रकार भेड़ ने अपनी योनि से मानव समाज का बहुत बड़ा उपकार किया है। यह उपकार इतना महत्त्वपूर्ण है कि उस पर पुराण ही लेखनीबद्ध किया जा सकता है। इस व्यंग्यकार की अँगुली रूपी इस लेखनी से जितना भी शुद्ध औऱ गाढ़ा घृत निकाला जाना संभव है, वह प्रयास कर रहा है।
समाज ,धर्म- कर्म,सियासत सभी क्षेत्रों में भेड़ाचरण की विशेष महिमा गाई जाती है। पहले ही कहा जा चुका है कि भेड़ मत्यान्धा प्राणी है। जो जन भेड़ानुगामी हैं ,उन्हें भी अपनी बुद्धि पर पाँच मिलीग्राम भी वजन डालने की आवश्यकता नहीं है।उसे तो बस पीछे -पीछे चलने का अनुगमन मात्र करना है।यहाँ तक कि बुद्धि की आँखें बंद करने के साथ -साथ अपने दोनों चर्म -चक्षु भी बंद कर लेने हैं। सो उन्होंने कर ही लिए हैं।
आपको यह भी विदित होगा कि भेड़ का दूध क्या कोई गाय , भैंस जैसा जलवत पतला दूध नहीं है। वह तो मानें वह मक्खन ही देती है। राजस्थानी मुहावरा तो आप जानते ही होंगे कि मक्खन खाने से अधिक लगाना अधिक हितकर होता है।भेड़ाचारी पुरुष या स्त्री में मक्खन लगानेका विशेष हुनर होता है।वह दूसरों को मक्खन लगाकर स्वयं मक्खन - मलाई चाभता है।राज नेताओं के 'भेड़ाचारी' जगत प्रसिद्ध हैं। मक्खन लगाने में डी.लिट्.की उपाधि भी उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती।देशी भाषा में इन्हें चमचा/ चमची (लिंग भेदनुसार) भी कहा जाता है। कहना चाहिए कि भेड़ के बहुत सारे पर्याय बन गए हैं। यथा:चमचा, चमची, मत्यान्ध , मक्खनबाज,परपद चिह्नानुगामी, भेड़ाचारी आदि। जैसे गिरि को उठाया तो कृष्ण हुए गिरधारी,वंशी बजाई तो वंशीवाले, मुर राक्षस को मारा तो मुरारि, गोपियों को चाहा तो गोपिवल्लभ आदि आदि।जैसे कर्म वैसे उनके नाम की ख्याति।
नेताओं की पूँछ को लम्बा और छोटा करना 'भेड़ाचारी' की बाईं टाँग का चमत्कार है। उनके पीछे - पीछे जो चलना है। उनके टुकड़ों पर पलना है। इसीलिए उनके बने साँचे में ढलना है।अन्यथा चारों को पड़ेगा मलना है।एक के पीछे लंबी कतार।भीड़ को किराए पर लाने ,लादने का पूरा जिम्मेदार, कभी हेलीकॉप्टर कभी यान कभी कार। कितना बड़ा भार। कभी नहीं मानता हार। बेतार का तार। कभी नहीं बैठा बेकार।मिलता जो है असीम प्यार। यही तो है 'भेड़ाचारी' का उपहार। 'भेड़ाचारी ' का चतुर्दिक बेड़ा पार। समाज का अधिकांश भाग 'भेड़ाचारी' ही है। चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो या रीति, रिवाज ,रस्मों का , विवाह ,शादी ,तीज त्यौहार, सामाजिक व्यवहार; कहाँ नहीं है भेड़ाचार ? नब्बे प्रतिशत से अधिक समाज 'भेड़ाचारी' ही तो है ! बिना सोचे -समझे जो आचरण करे ,वह औऱ किस परिभाषा के अंतर्गत समेटा जा सकता है !
राजनीति की फसल को फलने -फूलने ,बढ़ने और फैलने, का सर्वोच्च श्रेय भी 'भेड़ा चारी' को ही जाता है। इनके बिना सब बंटाधार ही समझें। 'भेड़ाचारी' यदि पूँछ है तो नेता उसकी मूँछ है। सारा दारोमदार उसी के ऊपर टिका हुआ है।बड़ी मूँछ धारी की पूँछ भी लंबी होनी चाहिए। वही तो नेता के गले का हार है। नहीं तो नेतागीरी में क्या सार है? आम आदमी की अति महत्वाकांक्षा उसे और कुछ भले नहीं बना सके, 'भेड़ा चारी' अवश्य बना देती है। वह धृतराष्ट्र जी के साले जी की बहन का अनुज जो हुआ! जो जानबूझ कर अपनी बहन का अनुकरण करता हुआ स्वतः आँखों पर पट्टिका बंधन कर लेता है। धन्य हैं आज के युग के सकल ' भेड़ाचारी ' !
🪴 शुभमस्तु ! ०२.०१.२०२२◆
९.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें