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✍️ व्यंग्यकार © 🤿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '
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साँचे का संसार यह,नित साँचों की खोज।
साँचों में बहुजन फँसे,ढूँढ़ रहे निज ओज।
जिधर भी दृष्टि डालिए ,साँचे ही साँचे दिखाई देते हैं।जो जन पहले से ही साँचों में सटे हुए हैं, वे वहाँ पर अपनी सट-पट कर रहे हैं। किंतु जो अभी साँचों से बाहर हैं, वे साँचों की तलाश में भटक रहे हैं।अपना - अपना सिर पटक रहे हैं। साँचों में सटे हुए कोई-कोई जन मटक रहे हैं ,कुछ अटक रहे हैं औऱ किसी अन्य को खटक रहे हैं। साँचे मानो मानव की शांति की तलाश हैं।साँचों के बिना मानो वे जिंदा लाश हैं।घूरे पर चरने वाले विचरते हुए गधों की घास हैं।बड़े ही निराश हैं। साँचों के बिना तो जैसे कागज़ के ताश हैं। कोई कहीं भी फेंक देता है और अपना उल्लू सीधा कर लेता है। इसलिए उन्हें एक उचित साँचे की तलाश है।
कोई समाज सेवा के साँचे में सटा है। तो दूसरा सियासत के साँचे में जुटा है।कोई धर्म की चदरिया रँग रहा है औऱ अपने चर्म - चरणों को पुजवाकर साधु - संगत में सज रहा है। किसी को नशा है धन कमाने का ,किसी औऱ का धन लूटने का।किसी को मोह माया के बंधन से यथाशीघ्र छूटने का।कोई किसी कामिनी की काया में अपने को सिमटाये हुए है। तो उधर कामिनी निज साँचे में अपना तन मन रमाए हुए है। कोई ज्ञानी बनने की राह पर निकल पड़ा है , सब भटक रहे हैं अंधकार में ; इस अहं में गड़ा है।कोई झुकते - झुकते दुहरा हो रहा है।उधर जो तना हुआ है , निज गुरूर में इतरा रहा है। मानो साँचे ही अंतिम गंतव्य हैं।साँचों में घुस बैठना ही उनका वास्तविक मंतव्य है।इसलिए साँचे ही प्रणम्य हैं। उनके लिए वही उनकी श्रेष्ठतम शरण्य हैं।
समाज, सियासत, धर्म ,दल, ज्ञान, पांडित्य,व्यवसाय, अमीर, गरीब,स्त्री,पुरुष, कवि ,लेखक, चोर ,डकैत ,डॉक्टर, अभियंता ,अधिवक्ता ,शिक्षक, कर्मचारी ,अधिकारी, नेता , अभिनेता,मंत्री,संतरी,साधु , महात्मा ,पुजारी,महंत,:चेहरे अनंत, साँचे भी अनंत।साँचे से बाहर रहना ; मानो मिट्टी का लोंदा। एकदम बोदा।अस्तित्व विहीन।कहीं भाषा का साँचा, कहीं जाति ,वर्ग ,वर्ण ,सम्प्रदाय का साँचा। सब कुछ है वह ,परंतु यदि नहीं तो कोई मानव नहीं। कहीं मानवता नहीं। मानव नाम का कोई साँचा ही नहीं। कोई भी अस्तित्व नहीं मानवता के साँचे का।
पशु को एक खूँटे से बाँधा जाता है। पर मानव तो स्वयं खूँटा बंधित है। वह खूँटा प्रिय है। बंधना उसकी प्रकृति है।उसकी मति में यही उसकी सद्गति है। बिना बँधे हुए वह रह नहीं सकता , जी नहीं सकता। इसीलिए न्याय नहीं; सर्वत्र पक्षपात का बोलबाला। जैसे सभी कूओं में भंग का मसाला भर डाला। नाम भर साँचा , पर साँच का नाम नहीं।
साँचे में ढल जाने से लाभ ? लाभ ही लाभ। निरंतर लाभ। न साँच की चिंता , न आँच का डर। भेड़ बनकर उनके पीछे -पीछे विचर। बस साँचे का घेरा न टूटे। अपना स्वामी न रूठे। कूप मंडूक बने रहें। चारदीवारी में पड़े - पड़े तने रहें । लकीर के फ़कीर बन मंडल में सजे रहें। हर समय बने - ठने - घने रहें। एक जंजीर से निरन्तर बँधे रहें। जो मिले ,उसी में मजे रहें।
जो साँचे में जितना फिट। वह उतना ही रहता है हिट। कैसी खिट-खिट ।कैसा सोचना ,कैसी घिस- पिट।जैसी माटी भरी जाएगी , नाक -नक्स की सूरत वैसी ही बन जाएगी।इसलिए 'सबते भले वे मूढ़ जन, जिन्हें न व्यापे जगत गति।'काहे का सोचना, काहे को लगाए मति।। बिना ही लगाए हर्रा फिटकरी ! मिलते चलें खीर मालपुआ खरी। तो क्यों न किसी साँचे में अपने तन - मन की माटी को जमाए ? नहीं आजमाया है अभी तो क्यों न जाकर के आजमाए? इतना अवश्य देख लेना कि साँचे हों पके -पकाए। वरना ऐसा न हो कि लौट के बुद्धू घर को आए!
🪴 शुभमस्तु !
२३.०१.२०२२◆ १२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
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