194/2023
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●शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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नदी का किनारा,
फिर भी प्यासा बेचारा,
किनारे पर खड़ा
तरुवर एक।
नहीं डाली हरी
न रहे पत्ते,
सूख कर रसहीन
झड़ गए
कब के।
झाँकता
भोर वेला में
दिवाकर,
शुष्क शाखाओं की
आँख से,
देखता नियति
तरु की
भरता लंबे श्वास - से।
टूटकर
जल में गिरीं
हैं डलियाँ कुछ,
क्या करे
असहाय है
तन औऱ मन हैं
निपट रुक्ष।
होता है जब
समय अपना बुरा,
क्या करे कोई
नियति का खेल
हर एक कोई
देता है दुरदुरा।
नियति जिसकी
जो होती है 'शुभम्',
बदली नहीं जाती,
झेलना ही पड़ता है
वक्त के थपेड़ों को।
●शुभमस्तु !
09.05.2023◆ 10.15 आ.मा.
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