बुधवार, 24 मई 2023

माल तुम्हारा:स्वामित्व हमारा ● [ व्यंग्य ]

 223/2023 

 

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व्यंग्यकार© 

● डॉ. भगवत स्वरूप शुभम् 

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 मैं ये नहीं कहता कि आप साझा -संग्रह के साझीदार नहीं बनें।यदि आपको अपना नाम चमकाने की बहुत जल्दी है औऱ शार्ट कट चलते हुए अल्पावधि में ही एक बड़ा कवि या लेखक बनने की चाहत है;तो चूकिए मत। अपने से भी महान महत्वाकांक्षी को अपना बनाइए औऱ उनके नाम से प्रकाशित संग्रह के एक साझीदार बन जाइये।माल आपका और स्वामित्व उनका।

      क्या आपने अपने सच्चे मन में इस बात को विचार किया है कि जिस साझा -संग्रह का स्वामी संपादक या संकलक आप जैसे पचास - सौ रचनाकारों की रचनाओं परिचयों औऱ सुंदर -सी फोटोज लगाकर अपने नाम से जिस कृति को प्रकाशित करा रहा है ,उसमें आपके अमूल्य योगदान का क्या महत्त्व है?आपने अपना एक नन्हा-सा चना डाल कर खेती में साझा तो कर लिया ,किसान- मजदूर बन गए, पर न तो खेत आपका है औऱ न उसके किसान भी आप हैं।आप जैसे ही अन्य चना दान करने वाले कुछ अन्य महत्वाकांक्षी कवि औऱ लेखक भी हैं। जिनकी अपार भीड़ है, जो रातों -रात महाकवि के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन होने के लिए लार टपका रहे हैं।कुछ अनुभवी घाघ ठेकेदार तो इसका बहुत बड़ा धंधा भी संचालित कर रहे हैं।प्रति व्यक्ति 800, 900 या 1000 रुपये से यदि एक सौ लोगों का जोड़ लिया जाए ,तो एक लाख की एकत्रित धनराशि में से यदि दो सौ रुपये प्रति पुस्तक औऱ डाक व्यय की दर से भी अस्सी हज़ार की नकद बचत है। अपना हर्रा लगा न फिटकरी रंग चोखा ही आ गया ,तो घाटा भी क्या है? 

     साझा संग्रह का स्वामी संपादक यदि इतना ही बड़ा लेखक या कवि होता ,तो क्या वह स्वयं लिखकर पूरी पुस्तक का प्रकाशन न करा लेता। आप स्वयं सोच सकते हैं कि कहीं न कहीं तो गड़बड़ है। आप ठगे जाकर धोखा खा रहे हैं। यह धोखा ही ऐसी खाद्य सामग्री है, जो आपके द्वारा खाने के बाद ही आपको पता लगता है कि आपने खा लिया है :धोखा। यदि आपको पहले से ही पता हो तो क्या आप इसे खाना पसंद करेंगे? नहीं न? परन्तु अब तो खा ही गए हैं। तो पचाना भी पड़ेगा और पछताना भी पड़ेगा।मुरब्बा किसी और का आप तो बस गरम मसाला बनकर उसे स्वादिष्ट बनाने में लगे हुए हैं।

      सहित्य का सृजन ;जो एक समाज और साहित्य की सेवा का पवित्र कार्य था ,अब तथाकथित शातिर और मनी माइंडेड व्यक्तियों द्वारा धंधा बन चुका है। हमारे जैसे अज्ञानियों की धरती पर फल फूल रहे धंधे के जिम्मेदार हमारी चरम महत्ववाकांक्षा ही तो है। जिसका भरपूर लाभ आज के 'चतुरों' द्वारा उठाया जा रहा है। यह एक ऐसी खेती है,जिसका कोई एक निश्चित मौसम है न शरद,शिशिर ,हेमंत, वसंत, ग्रीष्म या पावस की षड ऋतुएँ ही। यह बारहों मास , बावन सप्ताह, सातों दिन, चौबीसों घंटे और तीन सौ पैंसठ दिन उगने, फूलने,फलने औऱ लहराने ,पकने वाली फसल है। 

 मुझे पता है कि अब आप मुझसे यही प्रश्न करने की सोच रहे होंगे कि क्या आपने भी इसका 'रसास्वादन' किया है? अर्थात क्या आपने भी यह 'खोवा' खाया है? अवश्य खाया है । पर जब उसके कण - कण में रस - हीनता ,रचनाकार की दीनता औऱ ठेकेदार संपादक की तल्लीनता का संज्ञान हुआ तो आँखें खुल गईं। दिन में ही उल्लू बनाने का अच्छा तरीका ढूँढ निकाला गया है।कौन नहीं जानता कि दिन में लक्ष्मी वाहन की आँखें बंद ही रहती हैं!लक्ष्मी पुत्रों ने सरस्वती पुत्रों को अपना वाहन बना ही लिया! क्योंकि उनकी तो चारों (दो हिए की +दो चर्म चक्षु) खुलीं ही हुई हैं। मित्रो! मैं तो सँभल चुका हूँ, आप भी सँभल जाइए। अब ये आपकी इच्छा, मानें या न मानें। ●शुभमस्तु !

 23.05.2023◆11.30आ.मा. 

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