बुधवार, 17 मई 2023

वसुधा नहीं कुटुंब ये ● [ दोहा ]

 209/2023


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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'विश्व एक परिवार है', झूठी लगती   बात।

नहीं सुरक्षित आदमी,हो जाए यदि  रात।।

पति -पत्नी संतान में,सिकुड़े अब परिवार।

नेह नहीं जन और से,करके देख  विचार।।


आई  दुलहिन  गेह में,छोड़ दिए  पितु-मात।

मानव  बदतर   ढोर  से,हुए बिराने   तात।।

स्वार्थ लीन नर-नारि हैं,रुचता भोग विलास।

त्याग दिए माता-पिता,यद्यपि हो  उपहास।।


प्रौढ़ाश्रम बतला रहे, कहाँ विश्व   परिवार।

संतति के उपहास  से,घर के बंद    दुआर।।

वसुधा नहीं कुटुंब ये,मनुज भेड़िया   एक।

नर-नर का आहार है,खोया सत्य   विवेक।।


झूठे  वे   आदर्श   हैं,  नहीं  राम    आदर्श।

लखन विभीषण हो गया,करता नहीं विमर्श।

पैर  वधूटी   के   पड़े,  आँगन  में    दीवार।

आते  ही  सीधी   खड़ी, पुत्र मूढ़    लाचार।।


जब तक पुत्र कुमार था,पिता-जननि से नेह।

टूट  गया  जब   आ  गई,नई ब्याहुली   गेह।।

नारी  की  ही  देन  है,  प्रौढ़ाश्रम   इस   देश।

'शुभं'सत्य कटु है यही,बदला गृह  - परिवेश।


●शुभमस्तु !


15.05.2023◆9.30आ०मा०

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