227/2023
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●शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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ये गहने!
गहन करने के लिए
नर को,
बनाए स्वयं नर ने,
फँसाने के लिए
स्वयं निज को,
कि पहने
देह पर कामिनि।
स्वयं मछली
बुने निज जाल,
बुलाती काल,
सब शृंगार का बाजार,
हो रहा
पुरुष अब बेहाल,
जिंदा मशाल,
धरा की दामिनी।
पुरुष - दौर्बल्य,
पथ का शल्य,
पहचानती वह
रात -दिन
'इमोशनल ब्लेक मेल'
आजीवन खेल,
झेल ही झेल।
अधूरापन इधर
अधूरापन उधर,
उधर नारी इधर नर,
परस्पर डर,
भरी कंकड़
काँटों की डगर,
करे मत
कुछ अगर -मगर।
गहने का ग्रहण
कर संवरण,
वृथा तव प्रण,
चराचर में संचरण,
क्षण प्रति क्षण,
झेलता जनगण।
●शुभमस्तु !
25.05.2023◆4.00प०मा०
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