216/2023
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● व्यंग्यकार©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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हाँ, मैं नारी हूँ।करनी से लाचारी हूँ। सबके साथ अलग - थलग रोल! किसी के साथ फूटी आँख भी नहीं किसी को घी से तोल! पति, पुत्र, बेटी, सास ,ससुर !कोई लगे देवी - देव तो कोई असुर! सबके साथ छंद अलग ,अलग ही सुर। मैं केवल एक, पर मेरी भूमिकाएं अनेक ! जहाँ जैसा विवेक ,कहीं बहुत नेक; कहीं पकड़ी हुए टेक।
'ना' से मेरा आदि है,नकार ही मेरा आस्वाद है।जानते तो होंगे कि मेरी ' ना ' भी 'हाँ 'है। और यदि कहीं हो गई 'हाँ' ; तो कर ही देगी तुम्हें बहुत परीशां!इसलिए सहज ही जुबां से 'हाँ' तो निकलती ही नहीं। इशारों को अगर समझो ,तो क्या से क्या न हो जाए!कहती है जो जुबाँ, वह ये दीदे नहीं कहते। इन दो दीदों की भाषा ही गूढ़ है। जो न समझ पाए ,समझो वह मूढ़ है।पर ये नारी तो अपने ही मत पर आरूढ़ है। अब चाहे पहेली कहें या उसकी घुमावदार हवेली में उलझे रहें।कोई कहता इसे हमारी अदा है, जमाना हमारी इन्हीं अदाओं पर फिदा है।लेकिन जीवन जीने के वास्ते वह नहीं हो सका नारी से जुदा है।
ये न समझें कि कैसी ये हमारी सोच है। ये भी न समझें कि ये कोमलांगी इतनी पोच है! हमारी हर एक करनी में एक अलग ही लोच है।जहाँ पर मर्द की सोच का पूर्ण विराम है, वहीं से हमारा शुरू होता मुकाम है। न समझिए नारी को मात्र कोमल निरीह चाम, इसी से तो होते हैं कड़े - कठोर काम।इसीलिए तो नारी को एक नाम दिया गया वाम या वामा।
मानव समाज की ऐसी कितनी जिंदा सास हैं , जो अपनी बहुओं के लिए मात्र एक लाश हैं! यही कोई अंगुलियों के पोरुओं पर गिनने भर की। समझिए उन्हें दाल बरोबर मुर्गी घर की। अन्यथा कोई बहू ईमानदारी से अपने गरेबाँ में झाँक कर बता दे कि उसके पति की अम्मा दुनिया की सबसे अच्छी सास है। यदि कोई कहे भी तो माना जाएगा कि ये दुनिया का सबसे बड़ा उपहास है।किसी अविवाहित बेटे औऱ बेटी के लिए माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है।किंतु विवाहोपरांत उसी बेटे के लिए औऱ उसकी 'आदेशांगिनी' भार्या के लिए वह सबसे बुरी औऱ कर्कशा नारी है। नारी तो वस्तुतः हजारों हजार विरोधाभासों की 'गर्मकल्ला' क्यारी है।अपने बूढ़े सास -ससुर उसे फ़ूटी आँख भी नहीं सुहाते ,तो नहीं ही सुहाते।कोई कर भी क्या सकता है! उसे वे मिस्री की बोरी में फँसी फांस ही दिखाई देते हैं।तभी बेटे बहू के कहने पर उन्हें टूटे मूढ़े की तरह वृद्धाश्रम भेज देते हैं।इन सभी वृद्धाश्रमों की जनक और जननी नारी ही है ।बेचारे पति की तो उसकी हाँ में हाँ बोलना मात्र लाचारी है।
नारी, नारी के लिए आरी।पुरुष पर तो मात्रा और देह से भारी।किसी के लिए फूलों की क्यारी तो प्यार से भी प्यारी। मुझे मैंने नहीं बनाया। सारा दोषारोपण मुझी पर आया।पूछो उस परमात्मा से कि मुझे ऐसा चित्र - विचित्र ,कभी बदबू तो कभी इत्र,ऐसी कलत्र क्यों बनाया? इतने सारे रंग जब एक ही जगह भर दिए तो आखिर हम कैसे जिएं। बेटा खुश तो बहू फुस, उसे तो रहना है अपने स्वार्थ में घुस।इसीलिए तो चाहती करना सबको घर से पुश। अपनी प्रकृति से बंधना विवशता है।कभी जो महान है ,कभी वहीं कृशता है। कोमलांगी औऱ क्रूरा का ये कैसा दुःसह मेल है।विधाता के विधान का ये कैसा खेल है?नारी,प्यारी, आरी, कटारी,उपहारी,दुलारी, कितनी - कितनी उपमाएँ सारी। वाह री!मैं नारी।घुमावदार हवेली तुम्हारी!तुम सबके घर और घर वालों पर भारी।इतना भी समझ लें कि मेरे बिना खिलती नहीं घर की क्यारी;जब तक नहीं गूँजती नर्सिंग होम से घर की चौबारी तक नवजातों की मधुर किलकारी।
●शुभमस्तु !
18.05.2023◆12.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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