बुधवार, 24 मई 2023

जीवन मिथ्या -जाल ● [ दोहा ]

 224/2023


[मिथ्या,छलना,सर्प,मछुआरा,जाल]

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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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            ● सब में एक ●

मिथ्या यह   संसार है,मात्र एक   अध्यास।

लगती  रज्जू   जीव  को, होता  सर्पाभास।।

अपना-अपना तू कहे,धन, संतति, परिवार।

मिथ्या हैं सब जान ले,करके  गहन विचार।।


छलना  देने   के   लिए, जन्मे   तेरे   द्वार।

जो  कपूत  संतति बने,मिले न  सेवा प्यार।।

छलना से छल -छद्म के,छिद्र बढ़ रहे नित्य।

जितनी जल्दी जान लो,जन-जीवन औचित्य


सर्प दोगले  शांति के, बनकर  भोले   दूत।

नित्य  डस  रहे  देश को,हिंसा कर  आहूत।।

रस्सी में भ्रम सर्प का,जब मिट जाए मीत।

ज्ञान - चक्षु तेरे खुलें,होती जन की   जीत।।


मानव,मानव के लिए,बन मछुआरा  एक।

काँटे  में  लासा  लगा,  करता पूरी   टेक।।

दृश्य-जगत के जाल में,फँसा जीव -संसार।

मछुआरा तट मौन है,देख रहा   जलधार।।


जीव निकलने के लिए,करता अथक प्रयास।

फँसता जाता जाल में,सच का कर आभास

जीवन स्वप्नाभास-सा,लगता नित्य सजीव।

नहीं निकलता जाल से,बँधता सुदृढ़ जरीब।


    ●  एक में सब ●

जीवन छलना सर्प-सा,

                     मिथ्या का भ्रम - जाल।

मछुआरा नित  काल का,

                        करता वृहत धमाल।।


●शुभमस्तु!


24.05.2023◆ 7.00 आ.मा.


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