224/2023
[मिथ्या,छलना,सर्प,मछुआरा,जाल]
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● शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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● सब में एक ●
मिथ्या यह संसार है,मात्र एक अध्यास।
लगती रज्जू जीव को, होता सर्पाभास।।
अपना-अपना तू कहे,धन, संतति, परिवार।
मिथ्या हैं सब जान ले,करके गहन विचार।।
छलना देने के लिए, जन्मे तेरे द्वार।
जो कपूत संतति बने,मिले न सेवा प्यार।।
छलना से छल -छद्म के,छिद्र बढ़ रहे नित्य।
जितनी जल्दी जान लो,जन-जीवन औचित्य
सर्प दोगले शांति के, बनकर भोले दूत।
नित्य डस रहे देश को,हिंसा कर आहूत।।
रस्सी में भ्रम सर्प का,जब मिट जाए मीत।
ज्ञान - चक्षु तेरे खुलें,होती जन की जीत।।
मानव,मानव के लिए,बन मछुआरा एक।
काँटे में लासा लगा, करता पूरी टेक।।
दृश्य-जगत के जाल में,फँसा जीव -संसार।
मछुआरा तट मौन है,देख रहा जलधार।।
जीव निकलने के लिए,करता अथक प्रयास।
फँसता जाता जाल में,सच का कर आभास
जीवन स्वप्नाभास-सा,लगता नित्य सजीव।
नहीं निकलता जाल से,बँधता सुदृढ़ जरीब।
● एक में सब ●
जीवन छलना सर्प-सा,
मिथ्या का भ्रम - जाल।
मछुआरा नित काल का,
करता वृहत धमाल।।
●शुभमस्तु!
24.05.2023◆ 7.00 आ.मा.
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