रविवार, 21 मई 2023

मृग - मरीचिका ● [नवगीत ]

 221/2023

    

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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मृग- मरीचिका

प्यासा प्राणी

देख -देख ललचाए।


सोने का मृग

देख जानकी

बोली:  'लक्ष्मण  देवर।

देखो वह मृग

बना स्वर्ण से

आ जाओ तुम  लेकर।।'


'धनुष उठाओ

जाकर अपना

मन में तपन जगाए।'


मत्त वासना

रत यौवन है

आँखों  से  ये  अंधा।

बना   'रिलेशन

लिव इन' के ये

लगा  रहा   है  धंधा।।


फूटी दोनों

इनके ही की

कौन इन्हें समझाए।


मुरझाए हैं

फूल भूलकर

भौंरा  एक न जाता।

जब तक पाया

शहद मधुप ने

आसपास मँडराता।।


झरने लगते

सूख - सूख दल

झाँके  बिन कतराए।


मिले मुफ्त का

भोजन- चावल

दिखे   रेत    का  पानी।

मृग-मरीचिका

कहते इसको

मज़हब -मलिन कहानी।।


बिना बहाए

स्वेद देह से

शूकर -शावक छाए।


नेता -पालित

नव गुर्गों का

झुंड चाभता   मेवा।

चुपड़ रहे हैं

सारे चमचे

तेल,  दे  रहे  सेवा।।


'शुभम्' आमजन

चुसा जा रहा 

कैसे  ऊपर  जाए!


21.05.2023◆1.45प०मा०


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