187/2023
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●शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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तुम कभी थे फूल
सुरभित,
हो गए क्यों शूल
विकसित,
क्या कहें
इसको बताओ ?
प्रकृति क्यों
बदली तुम्हारी?
शब्द बोलो।
परखना
अपना पराया,
स्वार्थ के
आधार पर है,
'पूँछ' से
अनुमान लगता
कौन नारी
कौन नर है!
कल्पतरु
पहले लगाकर
अब जहर का
बीज घोलो?
आदमी
बहुरूपिया है,
कौन- सा कब
रूप उसका,
स्वार्थ का पुतला
निरंतर
पुत्र भी क्या
अत्र वश का?
जन्मते हैं
बीहड़ों में
शूल के भी
गाछ काले!
धूप -छाँहीं
जिंदगी है,
कम न होती
रिंदगी है,
घात में
बैठे हुए जन,
क्या यही
प्रभु वन्दगी है?
कर्म जो भी
कर रहे हो,
सत्य की
तखड़ी पे तोलो!
दूध से जो भी
जला है,
फूँक कर
मट्ठा चला है,
सँभल कर
बढ़ना
जगत में,
आदमी अपनी
जुगत में,
ऐ 'शुभम्'
वह राज खोलो,
यों न डोलो।
●शुभमस्तु !
04.05.2023◆5.45प०मा०
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